: ५४ : आत्मधर्म २००१ : माह :
विकाररूपे थई जाय, तो पछी विकार टाळे कोण?) ; [प] एक पर्यायमां आखा गुणनी नास्ति छे (केमके जो
एक ज पर्यायमां आखो गुण परिणमी जतो होय तो बीजे समये गुणनो अभाव थाय अने एक पर्याय
बदलीने बीजी पर्याय ज न थाय); अने [६] एक अवस्थानी बीजी अवस्थामां नास्ति छे (केमके जो पहेली
अवस्थानी बीजी अवस्थामां नास्ति न होय तो पहेली अवस्थानो विकार बीजी अवस्थामां चाल्यो ज आवे
एटले निर्विकारी अवस्था कदी थाय ज नहीं); एक अवस्थानो विकार बीजा समये नाश थई जाय छे. जे विकार
नाश थई जाय छे ते बीजी अवस्थाने शुं करी शके? कांई ज न करी शके. जेम ससलानां शींगडानो अभाव छे तो
ते कोईने लागे नहि, तेम एक अवस्थानो बीजी अवस्थामां अभाव छे तो ते बीजी अवस्थामां कांई ज करी
शके नहि; एटले बीजी अवस्था केवी करवी–विकारी करवी के अविकारी करवी ते पोतानी स्वतंत्रता रही. पहेलां
समयनो विकार तो बीजे समये टळी ज जाय छे तेथी विकार करवो के अविकार करवो ते पोताने आधारे छे.
विकार करे तेमां पण स्वाधीनता छे (पोते करे तो थाय छे) अने विकार टाळवामां पण पोते स्वाधीन छे.
आ जैन धर्मनो कक्को छे. अनेकान्तधर्मनुं स्वरूप तद्न सहेली रीते कहेवाय छे. अहो! अनेकान्त!
ए तो जगतनुं स्वरूप छे. आ अनेकान्तनी सादामां सादी वात कहेवाय छे. आ एक अनेकान्त समजे तो बधुं
समाधान थई जाय. अनेकान्त समजे तो स्वतंत्रता समजी जाय.
वर्तमान पर्यायनो विकार बीजी पर्यायमां आवतो नथी तेथी बीजी पर्याय केवी करवी ते पोताना द्रव्यने
आधीन छे. बीजी पर्याय विकारी करवी के निर्विकारी करवी ते तारे आधीन छे.
बस! आ अनेकान्त! जैनदर्शननी चावी. द्रव्य, गुण अने पर्याय त्रिकाळ स्वतंत्र सिद्ध थई गयां.
अहो! जैनदर्शन.
पहेलामां पहेली वात ए के तुं छो के नहि? तो कहे हा, हुं छुं–एम कहेतां ते पर पणे नथी अने तेनो
एक ‘छे’ –मांथी अनेकान्त लागु पाडतां द्रव्य–गुण–पर्यायनुं त्रिकाळ स्वतंत्र सत् उभुं थई जाय छे.
आहा! जैनदर्शन तद्न सीधुं अने सरळ छे पण विपरीतपणे मानीने मोटुं बाघडा जेवुं (अघरूं) करी
मूक्युं छे– (विपरीत मान्युं छे तेथी ज अघरूं लागे छे.)
व्यवहार आवे तेनी ज्ञानीने होंश होती नथी
दर्शनो विषय अखंड ध्रुव आत्मा छे
सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान अथवा सम्यग्चारित्रनो पण आश्रय सम्यग्दर्शनमां नथी.
श्रद्धानी पर्यायनो आश्रय पण श्रद्धामां नथी. श्रद्धानी पर्यायनो आश्रय थाय तो ते
व्यवहारद्रष्टि थई गई–अज्ञान थयुं. ‘व्यवहार आवशे तो खरोने’ एवी जेने होंश छे तेने
व्यवहारनो एटले रागनो संतोष छे. व्यवहार आवे तेनी होंश होय के खेद? खेद होय.
अज्ञानीने होंश छे, होंश छे त्यां राग–विकल्प छे. होंश=आश्रय, भावना. अज्ञानीने तेनी
ऊंडी आशा छे. ज्ञानीने तेनी भावना, आश्रय, के होंश होता नथी, खेद होय छे. ज्ञानी
तेमां राजी थतां नथी. अज्ञानीने अखंड विषय छोडीने पराश्रयमां होंश थाय छे.
ज्ञानीने रागनी भावना न होय, वीतरागतानी भावना होय छे. गुणनी हानि
थाय तेनी होंश न होय. जेनो व्यय थाय तेनी होंश ने आश्रय छे ते अज्ञान छे. दर्शननो
विषय अखंड ध्रुव आत्मा छे. दर्शननो आखो विषय त्यां ज आखुं बीज पड्युं छे. व्यवहार
आवे ने आश्रय बदलाय ते बेमां भेद छे. मोक्षनी निर्मळ पर्याय ने अभेद बन्ने वच्चेनो
आंतरो (भेद) सम्यग्दर्शन मानतुं नथी. अभेदद्रष्टि थतां निर्मळ पर्याय दूर ज नथी.