: फागण : २००१ : ७३ :
‘अनीतिथी पैसा मेळववा नथी’ एम निश्चय कर्या पछी पैसा वगर आवी पडेली अगवडताने
‘द्वेषरहित’ सहन करवी पडशे. अनीति जती करतां अनीतिने कारणे * मळती सगवडता न मळे तोपण
समभाव राखवो पडशे. शरीर जतुं करीने पण अनीति करशे नहि. अनीति जेने नथी करवी तेने शरीर जतां ते
उपर द्वेष नहि पालवे; पण अंतर स्वरूपनी शांतिना भान विना द्वेष थया वगर रहेशे नहि एटले आत्मानी
शांतिना भान वगर नीति पण रही शके नहीं.
आत्मा ज्ञाता–द्रष्टा स्वरूपे छे. ज्ञाता–द्रष्टामां परनुं कांई करवानो
* अहीं अज्ञानी माने छे ते अपेक्षाए कह्युं छे, खरेखर अनीतिने कारणे सगवडता मळती नथी, पण पूर्वनां पुण्यने कारणे मळे छे.
भाव ते ममत्व छे. त्यारे अनीतिना त्यागनुं ध्येय क्यां आव्युं? के शरीर उपरना राग–द्वेषनो त्याग करे! जेने
राग–द्वेषने जता करवा होय तेणे रागद्वेषने क्षणीक मानवा पडशे. अने ते नाशवान छे एम मानवुं पडशे. परनी
अनीतिनी यथार्थ त्यागवृत्ति करवी होय तेणे प्रथम तो ते अनीति अने राग–द्वेष पोताना त्रिकाळी स्वभावमां
नथी एवो निर्णय करवो पडशे ते निर्णय वगर राग–द्वेष टळे नहीं.
भगवान आत्माना शुद्ध स्वरूपनी यथार्थ प्रतीति वगर राग–द्वेषनो खरेखरो त्याग थई शके नहि.
राग–द्वेषना त्याग वगर शरीरादि संयोगनो त्याग होय नहि अने अशरीरी स्वरूप प्रगटे नहि.
शरूआतमां कहेल गाथानो पहेलो ज शब्द ‘तत्त्प्रत्ति’ छे, तेनो अर्थ शुं? जेवी प्रीति पर उपर छे तेवी
प्रीति आत्मा उपर आववी जोईए. पुण्य–पापनी प्रीति छोडीने आवा (हंमेशांं कहेवाय छे तेवा) निर्मळ
आत्मानी प्रीति करीने एकवार पण जेणे आत्मस्वरूपनी वात सांभळी छे ते जीव जरूर भावि मुक्तिनुं भाजन
थाय छे. जीवे प्रसन्न चित्तथी कदी आ वात सांभळी नथी, काने तो पडी पण ज्यां सुधी परनी रुचि रहे त्यां
सुधी आत्मानी रुचि थती नथी, अने आत्मानी रुचि वगर आ शब्दो काने पडे ते सांभळ्युं न कहेवाय. अहीं
“सांभळी छे” एम लख्युं छे, ‘वांची छे’ एम नथी कह्युं–तेमां गंभीर न्याय छे.
शरीर तेनी मर्यादाए (आयुकर्मनी स्थिति अनुसार) छूटे छे, अनंतवार शरीर छूट्यां पण जेने शरीर
छूटतां अरुचि थाय छे तेने शरीर अनुकूळ राखवानो भाव छे, शरीर जतां अणगमो कोने न आवे? तेनो
उत्तर– ‘अणगमो पण मारुं स्वरूप नथी’ एम जेणे जाण्युं होय तेने अणगमो न आवे. शरीर छूटतां जेने एम
थाय छे के बराबर मावजत–दवा न थई माटे आ प्रमाणे थयुं–तो तेने एम छे के मने शरीर नभावतां न
आवड्युं; एवी वृत्तिवाळो जीव, आ शरीर तो छूटी ज जशे पण पछी–बीजां शरीर धारण कर्या वगर रहेशे
नहि.(शरीर पर छे) परने नभाववानी त्रेवड (ताकात) मारामां छे एवा भावथी ते ज्यां जशे त्यां शरीर
धारण कर्या वगर रहेशे नहि.
संसारनां कार्योमां, वकीलना काममां डोकटर के डोकटरना काममां वकील माथुं न मारे, पण धर्मनां काममां तो
सौ डाह्या थाय! अनंत काळथी अपूर्व धर्मनी वात पण पोते जाणी नथी, छतां धर्मनी ज्यां वात चालती होय त्यां
पोतानो मत झट बतावी दे छे; पण तने जो धर्मनी खबर होय तो तने पूछीए छीए के धर्म ए आत्मानो स्वभाव
छे अने आत्मानो स्वभाव जन्म–मरण रहित छे, तो तने जन्म–मरण रहित स्वभावनो निश्चय थयो छे?
आत्माना स्वभावमां अणगमो नथी. शरीर जतां पण अणगमो न थाय तो शरीर जतुं कर्युं कहेवाय. शरीर
जतुं तो ज करी शके के जो अंतरमां आत्मानी शांतिनुं भान होय तो! ‘राग–द्वेष जता करूं’ एम धारे, पण रागद्वेष
जता करीने, ते जता करनारो त्रिकाळ टकनार कोण छे तेना भान वगर राग–द्वेष जता करी शके नहि.
आ आत्मानी वात चाले छे. आवा अपूर्व स्वभावनी वात प्रीतिथी क्यारे सांभळी कहेवाय? जो
अंतरमां पुण्यनी प्रीति न राखे तो. संसार प्रत्येना रागनी प्रीति घटाडीने आत्मानी वात सांभळे तो प्रीतिथी
सांभळ्युं छे, पण जो संसारनो राग घटाड्या वगर सांभळे तो तेणे आत्मानी वात सांभळी नथी पण रागनी
वात सांभळी छे. मारुं तत्त्व (आत्मानुं स्वरूप) पुण्य–पापनी बधी वृत्तिने छोडनारूं छे.
अहीं ‘प्रीतिथी सांभळी’ एम कह्युं छे, ‘प्रीतिथी वांची’ एम कह्युं नथी. जो वांचवाथी मोक्ष थतो होय तो
पहेलो मोक्ष पानांनो थवो जोईए. पानां तो जड छे, जडमां ज्ञान नथी. जेमां होय तेमांथी ज्ञान आवे पण न
होय तेमांथी आवे नहीं. अहीं ‘सांभळीने’ कह्युं छे तेमां निमित्त जाहेर कर्युं छे. दीवे दीवो प्रगटे. तेम ज्ञान जेमां
होय तेमांथी आवे. न्याय तो गंभीर छे पण टुंकमां कहेवाय छे.
जेणे कोई विकार राखवा जेवो मान्यो तेने निर्विकार स्वरूपनी रुचि