Atmadharma magazine - Ank 017
(Year 2 - Vir Nirvana Samvat 2471, A.D. 1945)
(Devanagari transliteration).

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: ७२ : : आत्मधर्म : १७
भगवान आत्माना शुद्ध स्वरूपनी यथार्थ प्रतीति वगर रागद्वेषनो
खरखर त्यग थई शक ज नह
ता. ९–९–४४ रविवार चैत्र वदी १
परम पूज्य सद्गुरुदेव श्री कानजी स्वामीनुं व्याख्यान. पद्मनंदी पंचविंशतिका
तत्प्रति प्रीति चितेन येन वार्तापिः श्रुताः। निश्चित स भवेद्भव्यो भावि निर्वाण भाजनम्।। [एकत्व अधिकार
आ देहमां रहेला आत्मानुं स्वरूप जो स्वभाव–द्रष्टिथी जोवामां आवे तो त्रिकाळ निर्मळ अने पवित्र छे;
निमित्त न लेवामां आवे तो तेमां विकार न होई शके. भूल क्षणिक द्रष्टिथी अने अनादिनी थयेली छे. जो भूल
न ज होय तो परमानंद स्वरूप प्रगट होय अने ते भूल जो स्वरूपमां होय तो टळी शके नहीं. जो प्रगट सारूं
होय तो कोई सारूं करवा मागे नहि, अने जो सारापणुं त्रिकाळ स्वभावमां न होय तो सारूं करवानुं रहे नहि.
दरेक प्राणी सुख शोधे छे तेथी तेने वर्तमान प्रगट सुख नथी; सुख पोतानुं स्वरूप छे. जो सुखनी सत्ता
(होवापणुं) न कबुले तो सुखनी शोध होई शके नहि, जे न होय तेमां कार्य करवा कोई प्रयत्न करतुं नथी.
सुखनो प्रयास करे छे तेथी क्यांक सुखनुं अस्तित्व माने छे, सुखनुं अस्तित्व न होय तो शोधे नहि अने सुख
प्रगट होय तो पण कोई गोते नहि. सुख क्यांक मान्युं अने तेनो उपाय छे ए पण कबुले छे, पण ते सुख क्यां
छे अने तेनो उपाय शुं छे तेना भान वगर सुखना नामे दुःखना उपाय अनादिथी जीव करी रह्यो छे.
एक तत्त्वने बीजा तत्त्वनी जरूर पडे ते पराधीनता छे. नाशवान वस्तुथी अविनाशीनुं सुख मानवुं तेमां
अंदर भय रहे छे के आ वस्तुनो संयोग खसी जशे तो हुं एकलो रही जईश अर्थात् मारुं सुख चाल्युं जशे–
एवो त्रास रहे छे.
आवी पडेली अगवडता वखते मरणनुं दुःख सहन करीने–देह छोडीने पण दुःख दूर करीने सुख चाहे छे.
शरीर जतुं करीने पण सुख लेवा मागे छे तेमां गर्भित रीते एम रह्युं छे के शरीरादि पर वगर हुं एकलो सुख
स्वरूप छुं. शरीर वगर हुं एकलो सुखरूप रही शकीश एवी श्रद्धा अव्यक्तपणे पण रहेली छे तेथी शरीर छोडीने
पण सुख लेवा मागे छे; आमां त्रण वात आवी:– (१) सुखनुं अस्तित्व मान्युं छे, (२) उपाय करे छे, (३)
शरीर छोडीने (एकलो आत्मा रहीने) पण सुख मागे छे; तेथी अज्ञानपणे–अव्यक्तपणे पण ‘एकलो रहीने
पण सुख मेळवी शकुं छुं, अशरीरी एकलो रही शकीश, एकला स्वभावमां सुख भर्युं छे, एम तो अव्यक्तपणे
मानी ज रह्यो छे. राग, विकार रहित एकलुं स्वरूप तेमां सुख छे एवा निर्णय वगर सुख प्रगटे नहीं.
आत्मामां सुख छे, ते सुख स्वाधीन छे, परना आधार वगरनुं छे, ते प्रगटी शके छे.
परथी निराळा सहज आनंद स्वरूप आत्मानी प्रतीत करी नथी. अज्ञान भावे तो पर वगर एकलो
सुख मेळवी शकुं छुं एम अव्यक्तपणे माने छे, पण भान भावे व्यक्तपणे कदी मान्युं नथी. वळी गमे तेवी
अनीति करतो होय छतां बहारमां पोताने अनीतिवाळो कहेवडावे नहीं–केमके अप्रगटपणे पण वाणीमां सत्नां
शरण लीधा वगर ते जीवी शकशे नहि. कोई तेने ‘अनीतिवाळो’ कहे तो फट कहे के शुं अमे अनीतिवाळा
छीए? जगतना प्राणी पण अनीतिने शरणे जीववा मागता नथी अने अव्यक्तपणे सत्यना शरण वगर रही
शकशे नहीं. जगतनां प्राणी जुठाणां करे पण ‘जुठाथी नभवुं छे’ एम बहारमां बोली शकशे नहि–एटली तो
सत्यनी शरम वाणीमां राख्या वगर जगतने छूटको नथी, तेथी गमे तेम पण सत्यनी ओथे रहेवा तो मागे छे.
कोईने पोताना भाव प्रमाणे फळ न आवे तेम बने नहि, माया–दंभथी कोई पण पोताना भावना
फळने फेरवी शके नहि; कह्युं छे के–
पाप छुपाया ना छुपे, छुपे तो महा भाग्य;
दाबी दुबी ना रहे, रू ए लपेटी आग.