न ज होय तो परमानंद स्वरूप प्रगट होय अने ते भूल जो स्वरूपमां होय तो टळी शके नहीं. जो प्रगट सारूं
होय तो कोई सारूं करवा मागे नहि, अने जो सारापणुं त्रिकाळ स्वभावमां न होय तो सारूं करवानुं रहे नहि.
दरेक प्राणी सुख शोधे छे तेथी तेने वर्तमान प्रगट सुख नथी; सुख पोतानुं स्वरूप छे. जो सुखनी सत्ता
(होवापणुं) न कबुले तो सुखनी शोध होई शके नहि, जे न होय तेमां कार्य करवा कोई प्रयत्न करतुं नथी.
सुखनो प्रयास करे छे तेथी क्यांक सुखनुं अस्तित्व माने छे, सुखनुं अस्तित्व न होय तो शोधे नहि अने सुख
प्रगट होय तो पण कोई गोते नहि. सुख क्यांक मान्युं अने तेनो उपाय छे ए पण कबुले छे, पण ते सुख क्यां
छे अने तेनो उपाय शुं छे तेना भान वगर सुखना नामे दुःखना उपाय अनादिथी जीव करी रह्यो छे.
एवो त्रास रहे छे.
स्वरूप छुं. शरीर वगर हुं एकलो सुखरूप रही शकीश एवी श्रद्धा अव्यक्तपणे पण रहेली छे तेथी शरीर छोडीने
पण सुख लेवा मागे छे; आमां त्रण वात आवी:– (१) सुखनुं अस्तित्व मान्युं छे, (२) उपाय करे छे, (३)
शरीर छोडीने (एकलो आत्मा रहीने) पण सुख मागे छे; तेथी अज्ञानपणे–अव्यक्तपणे पण ‘एकलो रहीने
पण सुख मेळवी शकुं छुं, अशरीरी एकलो रही शकीश, एकला स्वभावमां सुख भर्युं छे, एम तो अव्यक्तपणे
मानी ज रह्यो छे. राग, विकार रहित एकलुं स्वरूप तेमां सुख छे एवा निर्णय वगर सुख प्रगटे नहीं.
अनीति करतो होय छतां बहारमां पोताने अनीतिवाळो कहेवडावे नहीं–केमके अप्रगटपणे पण वाणीमां सत्नां
शरण लीधा वगर ते जीवी शकशे नहि. कोई तेने ‘अनीतिवाळो’ कहे तो फट कहे के शुं अमे अनीतिवाळा
छीए? जगतना प्राणी पण अनीतिने शरणे जीववा मागता नथी अने अव्यक्तपणे सत्यना शरण वगर रही
शकशे नहीं. जगतनां प्राणी जुठाणां करे पण ‘जुठाथी नभवुं छे’ एम बहारमां बोली शकशे नहि–एटली तो
सत्यनी शरम वाणीमां राख्या वगर जगतने छूटको नथी, तेथी गमे तेम पण सत्यनी ओथे रहेवा तो मागे छे.
दाबी दुबी ना रहे, रू ए लपेटी आग.