Atmadharma magazine - Ank 017
(Year 2 - Vir Nirvana Samvat 2471, A.D. 1945)
(Devanagari transliteration).

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: ७६ : : आत्मधर्म : १७
अभ्यास कर – हवे एकवार अमे कहीए छीए ते प्रमाणे
परमपूज्य सद्गुरु देवश्रीना श्री समयसार कळश ३४ उपरना प्रवचनमांथी
तारी मान्यता प्रमाणे तो अनंत–अनंतकाळथी तुं करतो आव्यो छो, छतां हजी तारो संसार तो ऊभो ज छे माटे
आचार्यदेव कहे छे के–अमे तने ज कहीए छीए ते तुं समजी शकीश एथी अमे तने समजावीए छीए. तुं
आत्मा छो, ज्ञान स्वरूप छो, तारामां समजवानी ताकात छे तेथी तने समजावीए छीए; लाकडाने कहेतां नथी केम
के ते जड छे. तुं पण जे कोई काम बतावे छे ते सामो समजी शके एवाने ज कहे छे. ‘पाणी लाव’ एम लाकडाने
संबोधीने कहेतो नथी, केमके लाकडामां ते शब्दना भावने समजवानी शक्ति नथी एम तें जाण्युं छे, एटले ‘पाणी
लाव’ एवा भाव जे समजी शके छे तेने पाणी लाववानुं कहे छे. वळी तीजोरीनी चावी विश्वासु नोकर होय तेने
सोंपे, पण बे वर्षना पोताना बाळकने सोंपतो नथी. जो के भविष्यमां तो बधुं ते छोकराने ज आपवानुं छे, पण
वर्तमानमां तेनामां लायकात नथी माटे तेने सोंपतो नथी. जेम तुं लौकिक कार्योमां सामानी लायकातनुं ज्ञान करीने
तेने योग्य कार्य सोंपे छे तेम अहीं सर्वज्ञदेवे तेमना ज्ञानमां, तारामां सिद्धपणानी लायकात जोई छे ते लायकात
भाळीने ज तने आवो उपदेश आपीए छीए. अनंतकाळथी तारा पर तरफना ऊंधा अभ्यासनी अमने खबर छे
छतां अमे कहीए छीए के तुं रागादि अने कर्मथी आत्माने जुदो मान! अने ते बधाथी भिन्न शुद्ध आत्मानी श्रद्धा
कर. भाई! तारी मान्यता प्रमाणे तो अनंत–अनंतकाळथी तुं करतो आव्यो छो, छतां हजी तारो संसार तो ऊभो
ज छे–तेथी तारी मान्यता खोटी छे; माटे ते मान्यता मूकीने हवे एकवार अमे कहीए छीए ते प्रमाणे अभ्यास कर,
मात्र छ महिना एम करवाथी तने आत्मस्वरूपनी जरूर प्राप्ति थशे; एवो कलश–३४ नो आशय छे.
आत्मा त्रिकाळी छे, जे पुण्य पापना भाव थाय छे ते वर्तमान एक क्षण पूरता छे, ते क्षणिक भावमां आखो
आत्मा आवी जतो नथी; आत्मा त्रिकाळ एकरूप रहे छे अने पुण्य–पाप तो बीजी ज क्षणे टळी जाय छे, तेथी जे टळी जाय
ते भाव तारा स्वरूपना नथी, कर्मना छे–एम स्वभावनुं जोर बताववा माटे कहीए छीए; माटे स्वभावनी श्रद्धा कर.
आत्मनो निःसंदेह निर्णय थई शके छे.
(व्याख्यानमांथी: गाथा ३८ टीका)
निर्णय करवानो स्वभाव आत्मानो छे. आत्मामां ज्ञान नामनो त्रिकाळ गुण छे तेनुं कार्य निर्णय
करवानुं छे. निश्चय करवानो गुण ज आत्माथी अभेद छे; तेथी जे जीव ‘आत्मानो निर्णय न थई शके’ एम कहे
छे ते आत्माना निर्णय करवारूप ज्ञान गुणने ज मानतो नथी एटले के ते आत्माने ज मानतो नथी केमके गुण
अने आत्मा जुदा नथी.
निर्णय करवारूप गुण तो आत्मामां त्रिकाळ छे, तेनी विकाररूप अवस्था होय त्यारे परमां ‘आ हुं’ एम
माने ते मान्यता खोटी होवा छतां पण त्यां निःशंकपणे माने छे, जे परमां निःशंक थाय छे ते स्वमां केम निःशंक
न थाय? निःशंकपणे निर्णय करवानी शक्ति तो आत्मामांज छे. जे अवस्था वडे परनो के पोतानी अवस्थानो
निर्णय करे अने तेमां निःसंदेह थाय छे तो पछी ते अवस्था वडे त्रिकाळी अखंड स्वभावनो निर्णय करे तेमां
संदेह केम होई शके? स्वनो निर्णय करवामां संदेह होई शके नहि.
ज्ञाननी जे पर्याय पर तरफ के क्षणिक पर्याय तरफ लक्ष करीने निःसंदेह थाय छे ते पर्याय जो दीर्घ लंबाय
तो स्व तरफ ढळे एटले त्रिकाळीनुं लक्ष करे तो तेमां संदेह होई शके नहि; केमके अवस्था तो द्रव्यमांथी ज वहे
छे; अने ए अवस्था स्व तरफ ढळतां द्रव्य–पर्याय अभेद थया–त्यां द्रव्यनी श्रद्धामां संदेह केम होय?
द्रव्यमांथी ज्ञाननी अवस्था आवे छे, ते अवस्था क्षणिक छे; ते अवस्थाद्वारा ‘शरीर ते हुं, राग ते हुं’
एम वर्तमान क्षणिकनो निर्णय करे छे–तेमां जरापण शंका करतो नथी; जो ते अवस्था स्वभाव तरफ ढळे तो
स्वभाव परिपूर्ण छे अने तेना जोरे श्रद्धा पण पूर्ण निःसंदेह थई जाय छे.
वर्तमान अवस्थाद्वारा सामा वर्तमाननुं लक्ष करे छे अने तेमां निःसंदेह थाय छे–ते निःसंदेहपणुं तो
क्षणिकना लक्षे होवाथी क्षणिक छे; पण जो वर्तमान अवस्था जेमांथी आवे छे ते त्रिकाळी द्रव्यनुं लक्ष करे तो
तेमां कदी संदेह रहे ज नहि. आ निःसंदेह श्रद्धा दरेक जीव स्व तरफना पुरुषार्थथी करी शके छे. ता. २८–११–४४