: फागण : २००१ : ७७ :
सम्यक्त्व ए ज प्रथम कर्तव्य छे
जुओ अष्ट पाहुड पानुं ३४४ थी ३४६
श्रावके प्रथम शुं करवुं ते बतावे छे:– मूळ गाथा
गहिऊण य सम्मत्तं सुणिम्मलं सुर गिरीव णिक्कंप ।
तंजाणे झाइज्जइ सावय! दुक्खक्खय ट्ठाए ।।८६।।
संस्कृत छाया
गृहीत्वा च सम्यक्त्वं सुनिर्मलं सुर गिरे रिव निष्कंपम् ।
तत् ध्याने ध्यायते श्रावक! दुःख क्षयार्थे ।।८६।।
अर्थ:– प्रथम तो श्रावके सुनिर्मल कहेतां सारी रीते निर्मळ अने मेरुवत् निष्कंप, अचल अने चळ–मलीन तथा अगाढ दुषण
रहित अत्यंत निश्चळ एवा सम्यक्त्वने ग्रहण करी तेने (सम्यक्त्वना विषयभूत एकरूप आत्माने) ध्यानमां ध्याववुं, शा माटे
ध्याववुं? दुःखना क्षय अर्थे ध्याववुं.
भावार्थ:– श्रावके पहेलांं तो निरतिचार निश्चळ सम्यक्त्वने ग्रहण करी तेनुं ध्यान करवुं के जे सम्यक्त्वनी भावनाथी गृहस्थने
गृहकार्यसंबंधी आकूळता, क्षोभ, दुःख होय ते मटी जाय. कार्यना बगडवा–सुधरवामां वस्तुना स्वरूपनो विचार आवे त्यारे दुःख मटी जाय.
सम्यग्द्रष्टिने एवो विचार होय छे के सर्वज्ञे जेवुं वस्तुनुं स्वरूप जाण्युं छे, तेम निरंतर परिणमे छे, अने तेम थाय छे तेमां ईष्ट अनिष्ट
मानी दुःखी सुखी थवुं ते निष्फळ छे; एवा विचारथी दुःख मटे ते प्रत्यक्ष अनुभव गोचर छे, तेथी सम्यक्त्वनुं ध्यान करवानुं कह्युं छे.
हवे सम्यक्त्वना ध्याननो महिमा कहे छे:– गाथा
सम्मत्तं जो झायइ साम्माइट्ठी हवेइ सो जीवो ।
सम्मत्त परिणदो उण खवेइ दुट्ठट्ठ कम्माणि ।।८७।।
संस्कृत
सम्यक्त्वं यः ध्यायत्ति सम्यग्द्रष्टिः भवति सः जीवः ।
सम्यक्त्व परिणतः पुनः क्षपयति दुष्टाष्ट कर्माणि ।।८७।।
अर्थ:– जे जीव सम्यक्त्वने ध्यावे छे, ते जीव सम्यग्द्रष्टि छे; वळी ते सम्यक्त्वरूप परिणमतां दुष्ट जे आठ कर्मो तेनो क्षय करे छे.
भावार्थ:– सम्यक्त्वनुं ध्यान एवुं छे के जो पहेलांं सम्यक्त्व न थयुं होय तोपण, तेना स्वरूपने जाणी तेने ध्यावे तो ते सम्यगद्रष्टि थई जाय
छे. वळी सम्यक्त्व प्राप्त थये जीवनां परिणाम एवां होय छे के संसारना कारणरूप जे दुष्ट आठ कर्मो तेनो क्षय थाय छे; सम्यक्त्व थतां ज कर्मनी
गुणश्रेणी निर्जरा थती जाय छे. अनुक्रमे मुनि थाय त्यारे, चारित्र अने शुक्लध्यान तेना सहकारी होय त्यारे सर्व कर्मोनो नाश थाय छे.
हवे ते वात संक्षेपमां कहे छे:– गाथा
किं बहुणा भणिएणं जे सिद्धा णरवरा गए काले ।
सिज्झिहहि जे वि भविया तं जाणइ सम्ममाहप्पं ।।८८।।
संस्कृत
किं बहुना भणितेन ये सिद्धाः नरवराः गते काले ।
सेत्स्यंति येऽपि भव्याः तज्जानीत सम्यक्त्व माहात्म्यम् ।।८८।।
अर्थ:– कुंदकुंदाचार्यदेव कहे छे के:– “घणुं कहेवाथी शुं साध्य छे? जे नरप्रधान भूतकाळमां सिद्ध थाय तथा भविष्यमां सिद्ध थशे
ते सम्यक्त्वनुं ज माहात्म्य जाणो.”
भावार्थ:– आ सम्यक्त्वनुं एवुं माहात्म्य छे के आठ कर्मोनो नाश करी जे भूतकाळमां मुक्ति प्राप्त थया छे तथा भविष्यमां थशे,
ते आ सम्यक्त्वथी ज थया छे अने थशे तेथी आचार्यदेव कहे छे के विशेष शुं कहेवुं? संक्षेपमां समजो के मुक्तिनुं प्रधान कारण आ
सम्यक्त्व ज छे. एम न जाणो के गृहस्थीओने शुं धर्म होय! आ सम्यक्त्व धर्म एवो छे के जे सर्वधर्मना अंगने सफळ करे छे.
जे निरंतर सम्यक्त्व पाळे छे, ते धन्य छे एम हवे कहे छे:– गाथा
ते घण्णा सुकयत्था ते सूरा ते वि पंडिया मणुया ।
सम्मतं सिद्धियर सिविणे वि ण मइलियं जेहिं ।।८९।।
संस्कृत
ते धन्याः सुकृतार्थः ते शूराः तेऽपि पंडिता मनुजाः ।
सम्यक्त्वं सिद्धि करं स्वप्नेऽपि न मलिनित यैः ।।८९।।
अर्थ:– जे पुरुषने मुक्तिनुं करवावाळुं सम्यक्त्व छे, तेने (सम्यक्त्वने) स्वप्नावस्था विषे पण मलिन कर्युं नथी–अतिचार
लगाव्यो नथी, ते पुरुष धन्य छे, ते ज