Atmadharma magazine - Ank 017
(Year 2 - Vir Nirvana Samvat 2471, A.D. 1945)
(Devanagari transliteration).

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: ७८ : : आत्मधर्म : १७
मनुष्य छे, ते ज कृतार्थ छे, ते ज शूरवीर छे, अने ते ज पंडित छे.
भावार्थ:– लोकमां कंई दानादिक करे तेने धन्य कहीए, तथा विवाह, यज्ञादिक करे छे, तेने कृतार्थ कहीए, युद्धमां
पाछो न फरे तेने शूरवीर कहीए, घणा शास्त्रो भणे तेने पंडित कहीए–आ बधुं कथनमात्र छे. मोक्षनुं कारण जे
सम्यक्त्व तेने मलीन न करे, निरतिचार पाळे, ते ज धन्य छे, ते ज कृतार्थ छे, ते ज शूरवीर छे, ते ज पंडित छे, ते ज
मनुष्य छे; ए (सम्यक्त्व) विना मनुष्य पशुसमान छे. एवुं सम्यक्त्वनुं माहात्म्य कह्युं छे.
सम्यक्त्व ए ज प्रथम धर्म छे अने ए ज प्रथम कर्तव्य छे. सम्यग्दर्शन विना ज्ञान, चारित्र अने तपमां
सम्यक्पणुं आवतुं नथी; सम्यग्दर्शन ज ज्ञान, चारित्र, वीर्य अने तपनो आधार छे. आंखोथी जेम मोढाने
सुंदरता प्राप्त थाय छे तेम सम्यग्दर्शनथी ज्ञानादिकमां सम्यक्पणुं प्राप्त थाय छे.
श्री रत्नकरंड श्रावकाचारमां कह्युं छे के :–
न सम्यक्त्वसमं किं चित्त्रैकाल्ये त्रिजगत्यपि ।
श्रेयोऽश्रेयश्च मिथ्यात्वसमं नान्यत्तनू भृताम् ।।३४।।
अर्थ:– सम्यग्दर्शन समान आ जीवने त्रणकाळ त्रणलोकमां बीजुं कोई कल्याण नथी अने
मिथ्यात्वसमान त्रणकाळ त्रणलोकमां बीजुं कोई अकल्याण नथी.
भावार्थमां कह्युं छे के–अनंतकाळ तो वीती गयो, एक समय वर्तमान चाले छे अने भविष्यमां
अनंतकाळ आवशे–ए त्रणे काळमां अधोलोक, मध्यलोक तथा ऊर्ध्वलोक–ए त्रणे लोकमां जीवने सर्वोत्कृष्ट
उपकार करनार सम्यक्त्व समान बीजुं कोई छे नहि–थयुं नथी–थशे नहि. त्रणलोकमां रहेला एवा तीर्थंकर, ईन्द्र,
अहमेन्द्र, भुवनेन्द्र, चक्रवर्ती, नारायण, बलभद्र वगेरे चेतन तेमज मणि, मंत्र, औषध वगेरे जड ए कोई द्रव्य
सम्यक्त्व समान उपकार करनार नथी; अने आ जीवनुं सौथी महान अहित–बूरुं जेवुं मिथ्यात्व करे छे एवुं
अहित करनार कोई चेतन के अचेतन द्रव्य त्रणकाळ त्रणलोकमां थयुं नथी, छे नहि, थशे नहि. तेथी मिथ्यात्वने
छोडवा माटे परम पुरुषार्थ करो. समस्त संसारना दुःखनो नाश करनार, आत्मकल्याण प्रगट करनार एक
सम्यक्त्व छे, माटे ते प्रगट करवानो ज पुरुषार्थ करो!
समयसार नाटकमां कह्युं छे के:–
“प्रगट हो कि मिथ्यात्व ही आस्रव बंध है और मिथ्यात्वका
अभाव अर्थात् सम्यक्तव संवर, निर्जरा तथा मोक्ष है।”
(समयसार नाटक पानुं–३१०)
अर्थ:– जाहेर थाव के मिथ्यात्व ए ज आस्रव–बंध छे अने मिथ्यात्वनो अभाव अर्थात् सम्यक्त्व ए ज
संवर, निर्जरा तथा मोक्ष छे.
जगतना जीवो अनंत प्रकारना दुःखो भोगवी रह्या छे, ते दुःखोथी हंमेशने माटे मुक्त थवा एटले के
अविनाशी सुख मेळववा माटे तेओ अहर्निश उपायो करी रह्या छे; पण तेओना ते उपायो खोटा होवाथी
जीवोने दुःख मटतुं नथी, एक के बीजा प्रकारे दुःख चाल्या ज करे छे. जो मूळभूत भूल न होय तो दुःख होय नहि
अने ते भूल टळतां सुख थया वगर रहे ज नहि–एवो अबाधित सिद्धांत छे. तेथी दुःख टाळवा माटे प्रथम भूल
टाळवी जोईए, ए मूळभूत भूल टाळवा माटे वस्तुनुं साचुं स्वरूप समजवुं जोईए.
वस्तुना साचा स्वरूप संबंधी जीवने जो खोटी मान्यता न होय तो ज्ञानमां भूल थाय नहि. ज्यां मान्यता
साची होय त्यां ज्ञान साचुं ज होय. साची मान्यता अने साचा ज्ञानपूर्वक जे कांई वर्तन थाय ते यथार्थ ज होय; तेथी
साची मान्यता अने साचा ज्ञानपूर्वक थता साचा वर्तनद्वारा ज जीवो दुःखथी मुक्त थई शके छे.
‘पोते कोण छे’ ए संबंधी जगतना जीवोनी महान भूल अनादिथी चाली आवे छे. घणा जीवो शरीरने
पोतानुं स्वरूप माने छे अथवा तो शरीर पोताना ताबानी वस्तु छे एम माने छे, तेथी शरीरनी संभाळ राखवा
तेओ अनेक प्रकारे सतत् प्रयत्न कर्या करे छे. शरीरने पोतानुं मानतो होवाथी शरीरनी सगवड जे जड के चेतन
पदार्थो तरफथी मळे छे एम जीव माने ते तरफ तेने राग थाय ज; अने जे जड के चेतन तरफथी अगवड मळे छे एम
ते माने ते तरफ तेने द्वेष थाय ज. जीवनी आ मान्यता महान भूलवाळी छे तेथी तेने आकुळता रह्या ज करे छे.
जीवनी आ महान भुलने शास्त्रमां मिथ्यादर्शन कहेवामां आवे छे. ज्यां मिथ्यादर्शन होय त्यां ज्ञान अने
चारित्र पण मिथ्या ज होय; तेथी मिथ्यादर्शनरूप महान भुलने महापाप पण कहेवामां आवे