गुणार्थिकनय शा माटे नहीं?
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: फागण : २००१ : ६९ :
परम पूज्य सवारनी चर्चा
सद्गुरुदेव ६–८–४४
शास्त्रोमां घणे ठेकाणे द्रव्यार्थिकनय अने पर्यायार्थिकनय एम बे
नयो वापर्या छे, पण ‘गुणार्थिकनय’ एम क्यांय वापरवामां आव्युं
नथी तेनुं कारण शुं? ते कहेवाय छे:–
कोई एवो तर्क करे के:–
तर्क १–द्रव्यार्थिकनय कहेतां तेनो विषय गुण अने पर्यायार्थिकनय कहेतां
तेनो विषय, तथा ए बन्ने भेगुं थईने प्रमाण ते द्रव्य, ए रीते गणीने
गुणार्थिकनय वापर्यो नथी; आ प्रमाणे कोई कहे तो ए प्रमाणे नथी.
तर्क २–द्रव्यार्थिकनयनो विषय द्रव्य अने पर्यायार्थिक नयनो विषय
पर्याय, तथा ते पर्याय गुणनो अंश होवाथी पर्यायमां गुण आवी
गया, ए रीते गणीने गुणार्थिकनय वापर्यो नथी; आ प्रमाणे कोई कहे
तो तेम पण नथी.
गुणार्थिकनय न वापरवानुं वास्तविक कारण
शास्त्रोमां द्रव्यार्थिकनय अने पर्यायार्थिकनय ए बे ज नयो वापरवामां
आव्या छे, ते बे नयोनुं खरूं स्वरूप ए छे के–
पर्यायार्थिकनयनो विषय अपेक्षीत–बंधमोक्षनी पर्याय छे,
अने ते रहित (बंध–मोक्षनी अपेक्षा रहित) त्रिकाळी गुण
अने त्रिकाळी निरपेक्ष पर्याय सहित त्रिकाळी द्रव्यसामान्य ते
द्रव्यार्थिक नयनो विषय छे–आ अर्थमां शास्त्रोमां द्रव्यार्थिक अने
पर्यायार्थिकनय वापरवामां आव्या छे, एटले गुणार्थिकनयनी जरूर
रहेती नथी.
शास्त्रोमां द्रव्यार्थिकनय वापरे छे तेमां ऊंडुं रहस्य छे.
द्रव्यार्थिकनयनो विषय त्रिकाळी द्रव्य छे अने पर्यायार्थिक नयनो विषय
क्षणिक छे.
द्रव्यार्थिकनयना विषयमां जुदो गुण नथी केमके
गुणने जुदो पाडी लक्षमां लेतां विकल्प ऊठे छे अने विकल्प ते
पर्यायार्थिकनयनो विषय छे.
शरीरादिना रजकणे रजकणनी क्रिया स्वतंत्र थाय छे; संसारनी रुचिवाळा जीवोने वैराग आवतो नथी.
आ मनुष्यभव पामीने अशरीरी भाव प्रगट करी मात्र एक भव रहे तेवो भाव प्रगट कर्यो नहि अने वीतराग
देव शुं कहे छे तेनी ओळखाण न करी तो भवनो अंत आवशे नहि. अने समज्या विनानो मनुष्यभव एळे
जवानो; एवां अवतार तो गलुडियां ने अणशियां जेवां छे; एवा तो घणाय दुनियामां जन्मे छे ने मरे छे, पण
एवो भाव प्रगट करे के भव न रहे तो जीवननी सफळता छे. बाकी दुनियाना कहेवा प्रमाणे चाले तो आत्मानो
धर्म थाय के जन्म–मरण टळे ए वात त्रणकाळमां बने नहि; दुनिया पोतानुं माने तो पोतानी दुर्गति टळी जाय
ने दुनिया पोतानुं न माने तो पोतानी दुर्गति थई जाय एम कोई काळे छे ज नहि. अनादिथी जीवोए आत्मानुं
स्वरूप शुं छे ते रुचिपूर्वक सांभळ्युं पण नथी, रुचिपूर्वक सांभळ्या वगर समजे तो क्यांथी? घणा जीवोने तो
साचा देव कोने कहेवा, तथा साचा गुरु कोने कहेवा तेनी पण खबर नथी; आत्मानी ओळखाण वगर कदाच
कोई जीव साचा देव, साचा गुरु, अने साचा शास्त्रनी ओळखाण करे तो पण व्यवहार सम्यग्दर्शन छे–के जे
पुण्यबंध छे, धर्म नथी. देव–गुरु–शास्त्र, शरीर–मन–वाणी ते परवस्तु अने ते तरफना वलणवाळा थता जे
शुभाशुभ भावो ते विनानो हुं एकलो, अखंड, शुद्ध, निर्विकल्प छुं एवी श्रद्धा ज्ञान थया विना, एवी आत्मानी
अंतर शुद्धि कर्या विना कोई दी कोईना जन्म–मरण टळ्यां नथी, अने टळशे पण नहीं. [प्रवचन: समयसार गाथा ३४]