: ९० : आत्मधर्म : चैत्र १ : २००१
जीव त्रस केम थाय? ते पोताना शुभभाव
वडे ज थई शके; निगोदमां सांभळवानी ईन्द्रिय नथी,
कोई उपदेशक नथी, कोई जीवनी दया पाळी नथी, कांई
दान आप्युं नथी तो पण त्रस थयो, वळी मनुष्य
थयो ए बधा शुभ भाव पोते कर्या तेथी ते गति
प्राप्त थई.
पहेलो मित्र–त्यारे शुभ भाव ते राग छे,
बंधनुं कारण छे. धर्मनुं अनुष्ठान नथी. धर्मने ते
प्रेरतुं नथी ते सद्व्यवहार नथी, एम तो हुं समज्यो;
पण शुभ भाव तो ज्ञानी जीव पण करे छे तेनुं केम?
बीजो मित्र–ए प्रश्न घणो सरस छे. तमे
पोते ते उपर विचार करशो तो वधारे ठीक पडशे. माटे
हवे आपणे फरी मळीशुं त्यारे ते प्रश्न लईशुं. पण
हजु दयानो खरो अर्थ करवो बाकी रहे छे. ते प्रथम
लईशुं
(बन्ने मित्रो जुदा पड्या)
संवाद चालु
[बन्ने मित्रो फरी मळे छे]
पहेलो मित्र:–दयानुं स्वरूप तमे शुं कहो छो,
तेनी शी व्याख्या छे?
बीजो मित्र:–दयाना बे विभाग छे, स्वदया
अने परदया.
पहेलो मित्र:–स्वदया ए वळी शुं––पोतानी
दया थती हशे?
बीजो मित्र:–पोतानी हिंसा अने अहिंसा
बन्ने थई शके छे. पोतानी अहिंसाने पोतानी दया
पण कही शकाय छे. जीव अनादिथी पोतानी शुद्धतानी
हिंसा करी रह्यो छे, ते टाळवी ए पोतानी अहिंसा
अगर पोतानी दया छे.
पहेलो मित्र:–आवो अर्थ कोई ठेकाणे कर्यो छे?
बीजो मित्र:–हा, श्रीमद् राजचंद्र कहे छे:–
(१) ‘क्षण क्षण भयंकर भाव मरणे कां
अहो! राची रहो.’
‘भाव निद्रा टाळो.’
(२) श्री समयसारनी स्तुतिमां पहेली ज
लीटीमां कह्युं छे के:– ‘संसारी जीवना भाव मरणो
टाळवा करुणा करी, सरिता वहावी× × ×’
(३) आ मासिकना प्रथम वर्षना अंक
बीजामां हिंसा–अहिंसाना लेखमां पण कह्युं छे.
ता. ६–प–४प रविवार बीजा चैत्र वद ९ थी
एक मास सुधी जैनदर्शनना अभ्यास माटे एक
शिक्षण वर्ग खोलवामां आवशे; १४ वर्षथी उपरना
उमेदवारोने दाखल करवामां आवशे. शिक्षणवर्गमां
दाखल थनारने माटे भोजननी तथा रहेवानी सगवड
स्वाध्याय मंदिर ट्रस्ट तरफथी थशे. आ वर्गमां दाखल
थवा ईच्छा होय तेमणे नीचेने सरनामे लखवुं.
श्री जैन स्वाध्याय मंदिर ट्रस्ट
सुचना:– जेनी अरजी नामंजुर थवा संबंधे
समाचार ता. १–प–४प सुधीमां न मळे तेओए वर्गमां
हाजर थवुं.
पहेलो मित्र:–सारूं, पण पर दयानो अर्थ शुं
करो छो?
बीजो मित्र:–पर जीवने मारी नहि नाखवानो
के दुःख नहि देवानो पोतानो शुभभाव ते पर दया छे.
पहेलो मित्र:–स्वदयानुं स्वरूप शुं छे?
बीजो मित्र:–स्वदया, स्वरूप दया अने निश्चय
दयानुं स्वरूप नीचे प्रमाणे छे:–
स्वदया:–आ आत्मा अनादि काळथी
मिथ्यात्वथी ग्रहायो छे, तत्त्व पामतो नथी, जिनाज्ञा
पाळी शकतो नथी, एम चिंतवी धर्ममां प्रवेश करवो ते
‘स्वदया.’
स्वरूप दया:–सूक्ष्म विवेकथी स्वरूप विचारणा
करवी ते ‘स्वरूपदया.’
निश्चयदया:–शुद्ध–साध्य उपयोगमां एकताभाव
अने अभेद उपयोग ते निश्चयदया.
निश्चयधर्म:–पोताना स्वरूपनी भ्रमणा टाळवी,
आत्माने आत्मभावे ओळखवो, आ संसार ते मारो
नथी, हुं एथी भिन्न, परम असंग, सिद्ध सद्रश शुद्ध
आत्मा छुं; एवी आत्मस्वभाव वर्तना ते निश्चयधर्म
छे. (मोक्षमाळा पाठ ९)
पहेलो मित्र:–आ संबंधे हुं विचार करीश अने
जरूर पडशे तो हुं तमने पूछीश. हाल तो सम्यग्ज्ञानी
शुभभाव [दया, दान आदि] केम करे छे? ते कहो.
बीजो मित्र:–आत्मा एक परिपूर्ण चैतन्य द्रव्य
छे, अने तेथी पोते पोताना स्वभावे परिपूर्ण छे, एम
सम्यग्ज्ञानी जीव माने छे, अने ते पोताना ध्रुव
स्वभावमां ठरवा वारंवार प्रयत्न पुरुषार्थ कर्या करे छे,
पोताना स्वरूपमां स्थिर रहेवानो पुरुषार्थ करतां
ज्यारे स्वरूपमां टकी शके नहि त्यारे अशुभ भाव टळे
छे पण शुभभाव रहे छे तेनुं स्वामीत्व तेने नथी. ते
तो ए रागनो ज्ञाता छे. बीजी रीते कहीए तो ज्ञानीनी
दशा नीचे मुजब छे.
१. द्रष्टि अपेक्षाए ते पोताने परिपूर्ण माने छे.
२. ज्ञान अपेक्षाए पोतानो त्रिकाळी शुद्ध स्वभाव,
पोतामां थती शुद्धता अने रही जती अशुद्धताने जाणे
छे, एटले के तेनो ते ज्ञाता छे.