: ९२ : आत्मधर्म : चैत्र १ : २००१
श्री समयसार शास्त्र अत्यंत अज्ञानीअोनुं अज्ञान टाळवा माटे रचायेलुं छे
संक्षिप्त अवलोकन
संपादक : रा. मा. दोशी
दर्शन बीजुं
अा लेखनी सात कलमो अागळ अंक १७ मां अावी गई छे; तेमां समयसार शास्त्रनी पहेली पांच गाथाअो
पर अवलोकन कर्युं हतुं, हवे त्यार पछी आगळनी गाथाओमां आचार्य भगवान शुं कहेवा मागे छे ते जोईए.
[गाथा ६ थी १०]
८. आगळ चालतां गाथा ६ मां शुद्ध आत्मानुं शुं स्वरूप छे ते कही, आत्मा अनंत गुणनो अखंड पिंड
छे छतां तेमां भेद पाडी ‘तेने दर्शन छे–ज्ञान छे–चारित्र छे’ एम कहेतां–भेद पाडतां छद्मस्थ जीवने विकार थया
विना रहेतो नथी––एम गाथा ७ मां जणाव्युं. गाथा ८ मां कह्युं के–गुणोना भेद पाडीने समजाव्या विना
अज्ञानी जीवो आत्मानुं स्वरूप समजी शकता नथी, तेथी भेद पाडीने समजाववुं पडे छे. अनार्यनुं द्रष्टांत आपी
कह्युं के–अनार्यने जेम तेनी भाषा विना समजाववुं अशक्य छे–तेम अज्ञानी जीवोने (जो के धर्म अने धर्मी
स्वभावथी अभेद छे तो पण) भेद द्वारा ज समजावी शकाय छे, तेथी तेओ तुरत ओळखी शके तेवा धर्मो–
गुणोना नामरूप भेद उत्पन्न करी तेमने समजाववामां आवे छे. जेम ब्राह्मणे म्लेच्छ थवुं योग्य नथी तेम ते
भेदरूप कथन अनुसरवा योग्य नथी, पण ते कथन द्वारा आत्मानुं अभेद परमार्थ स्वरूप समजी लेवुं.
९. ए रीते आठमी गाथा पण सिद्ध करे छे के मुख्यपणे अनादिना अज्ञानी जीवोने उदेशीने आ शास्त्र
बनाव्युं छे. गाथा ९–१० मां ‘व्यवहारनय परमार्थनुं ज प्रतिपादन करे छे’ एम बताव्युं छे.
[गाथा ११–१२]
१०. भेद उपरनी द्रष्टि ज्यां सुधी होय त्यां सुधी जीव अज्ञानी रहे छे. (तेवा जीवोने शास्त्रनी
परिभाषामां व्यवहारथी विमोहित–पर्याय बुध्धि कह्या छे.) ते द्रष्टि छोडी आत्माना त्रिकाळी एक अखंड शुध्ध
ज्ञायक ध्रुव स्वरूप तरफ जीव द्रष्टि करे–तेनो आश्रय ले तो ज तेनुं अज्ञान टळी सम्यग्दर्शन थाय छे–एम गाथा
११ मां कह्युं. ए प्रमाणे द्रष्टि फेरववा माटे त्रिकाळी जीवनुं स्वरूप (निश्चयनय) अने वर्तमान काळनी विकारी
अवस्था (व्यवहारनय) जाणवा योग्य छे–एम १२ मी गाथामां कह्युं छे. टुंकामां कह्युं के बन्ने पडखांओनुं
(नयोनुं) ज्ञान करवुं, पण तेमां आदरवा योग्य त्रिकाळी पडखुं (निश्चयनय) छे एम समजवुं.
११. आ बे गाथाओमां जीवना त्रिकाळी पडखां (निश्चयनय) नुं अने वर्तमान अवस्था
(व्यवहारनय) नुं ज्ञान करवानो उपदेश आपी निश्चयनयनो आश्रय होय तो ज जीव सम्यग्द्रष्टि थई शके छे–
ए प्रमाणे अज्ञानीने तेनुं अनादिनुं अज्ञान टाळवा माटे कह्युं.
[गाथा १३ थी १६]
१२. अनादिना अज्ञानीने सम्यग्दर्शन कोई काळे प्रगट्युं नथी. अने सम्यग्दर्शन प्रगट करवानो पुरुषार्थ
जे न करे ते जीवने धर्मनो नानामां नानो अंश पण न थाय; तेथी अज्ञान टाळवा माटे सम्यग्दर्शननुं स्वरूप
गाथा १३ अने १४ मां विगतवार समजाव्युं छे. सम्यग्दर्शन प्रगट थाय त्यारे सम्यग्ज्ञान होय ज छे–तेथी
सम्यग्ज्ञाननुं स्वरूप गाथा १प मां कह्युं छे.
१३. गाथा १प मां स्पष्टपणे जणाव्युं के–सम्यग्ज्ञान ए ज खरूं जिनशासन छे एम अनंत ज्ञानीओए
कह्युं छे. एटले के–जे जीव सम्यग्द्रष्टि नथी ते जिनशासननो खरो अनुयायी नथी. पुण्यभाव ते जिनशासन छे
एम घणाओ–माने छे, तेथी अज्ञानीओनुं ए अज्ञान टाळवा माटे भावश्रुत ज्ञान ज [आत्माना शुद्ध स्वरूपनुं
यथार्थ ज्ञान ज] खरूं जिनशासन छे एम डांडी पीटीने आचार्यदेवे आ गाथामां कह्युं छे.
१४. सम्यक्दर्शन जेने प्रगट थाय तेने अंशे सम्यक्चारित्र होय छे, ते चारित्रने स्वरूपाचरण चारित्र कहेवामां
आवे छे. तेवा जीव क्रमेक्रमे सम्यग्चारित्रमां आगळ वधे छे तेथी सम्यक्चारित्रनुं स्वरूप गाथा १६ मां आप्युं.
[गाथा १७–१८]
१प. गाथा १७ मां कह्युं के धनना अर्थी जीव जेम राजाने तेना लक्षणो वडे जाणी राजानी श्रध्धा करे छे
अने तेने अनुसरे छे तेमज जे जीव खरा सुखनो अर्थी होय तेणे प्रथम जीवने तेना लक्षणो वडे जाणीने जीवनी
यथार्थ प्रतीतिरूप श्रद्धान करवुं जोईए; अने पछी पोतामां स्थिर थवा रूप आचरण प्रगट करवुं जोईए.
१६. अहीं आचार्य भगवाने अनादिना अज्ञानीने खास नीचेनी बाबतो समजावी छे:–
(१) जाण्या विनानी श्रद्धा–गधेडाना शिंगडा समान होवाथी ते खोटी छे–अश्रद्धा छे. विना जाण्ये श्रद्धान
कोनुं? माटे आत्माना (जीवना) स्वरूपने जाण्या सिवाय कदी पण कोई जीवने धर्मनो अंश पण थाय ज नहीं.
(२) जो आत्माने पोते जाणे नहीं तो श्रध्धान