Atmadharma magazine - Ank 018
(Year 2 - Vir Nirvana Samvat 2471, A.D. 1945)
(Devanagari transliteration).

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: चैत्र १ : २००१ आत्मधर्म : ८३ :
आत्मधर्म
शाश्वत सुखनो मार्ग दर्शावतुं मासिक
वष २ : अक ६ चत्र १ : २०१
परम पूज्य सद्गुरुदेव श्री नमः समयसाराय संवत २००० ना चैत्र वद
कानजी स्वामीनुं व्याख्यान ११ बुधवार ता. १९–४–४४
श्री समयसारजी कळश १
नमः समयसाराय स्वानुभूत्या चकासते।
चित्स्वभावायभावाय सर्व भावांतरच्छिदे।।
नम: समयसाराय:–‘समय’ एटले आत्मा, अने ‘सार’ एटले रागादि रहित स्वभाव तेने ‘नम:’
एटले हुं नमुं छुं–आदर करूं छुं. आमां कोनो आदर करवो अने कोनो न करवो ते बताव्युं छे. समयसार एटले
रागादि तथा शरीरादि रहित शुद्ध आत्म स्वभाव तेमां नमवाथी ज धर्मनी शरूआत थाय छे.
“प्रथम शरूआतथी, पछी पंडित मृत्यु टाणे अने छेवट केवळज्ञाननी प्राप्ति ए त्रणे (जघन्य, मध्यम
अने उत्कृष्ट) भूमिका सुधी समयसारमां नम्या करूं” एम आचार्यदेवे अप्रतिहत भावना मंगळिक नाख्या छे.
शी रीते? के शरीरादि पर वस्तु छे, कांई करवानो भाव ते बधा संयोगी–क्षणिक भाव छे, मारो स्वभाव ध्रुव
अविनाशी छे तेमां ज नम्या करूं–एवी भावना मूकी छे. श्री आनंघनजीए कह्युं छे के–
‘ वीर जिनेश्वर चरणे लागुं, वीरपणुं ते मागुं रे; ’
‘वीर’ एटले आत्मानो वीर्य स्वभाव. पुण्य–पाप के राग–द्वेष ए कोई आत्मानो स्वभाव नथी.
आत्माना वीर्यनो एवो स्वभाव नथी के राग–द्वेषने पोताना माने! राग–द्वेष के कर्मने पोतानां मानवा ते
अज्ञान वीर्यनुं काम छे, अज्ञान भावे ‘पर मारां’ एम माने छे; स्वरूपमां राग–द्वेषना क्षणिक भावोने ग्रहवानो
आत्मवीर्यनो स्वभाव नथी.
“ वीरपणुं ते मागुं रे ” मारूं शुद्ध आत्मबळ एकला शुध्ध स्वभाव सिवाय पर उपर लक्ष न जाय एवुं
वीरपणुं–मागुं छुं; पुण्य–पापना भावने ग्रहवा ते अज्ञान वीर्य अर्थात् मिथ्या मोहनुं कार्य छे. अनादिथी अज्ञान
वीर्यने कारणे स्वभाव परथी जिताई जतो, हवे स्वभावना जोरवडे मिथ्यामोहने जीतीने वीरपणुं प्रगटाववुं छे.
ते वीरपणुं क्यां छे? ते कहे छे:–
‘वीरपणुं ते आतम स्थाने, जाण्युं तुमची वाणे रे.’
ध्रुव एकलो ज्ञाननो रसकंद एज स्वभाव छे. पोताना ज्ञान अने शक्ति प्रमाणे पोताना ध्रुव स्वभावने
पहोंचाडे; ते ध्रुव स्वभावने जाणवुं अने तेमां ठरवुं ए ज धर्म छे.
अहीं कह्युं के––“नमो समयसाराय,” एटले एकलो ज्ञानस्वरूप ध्रुव अविनाशी छे ते उपर लक्ष गया
वगर रागादि टळे नहीं–तेथी–मारा आत्मस्वभावमां नमुं छुं– प्रणमीने स्वभावमां ढळुं छुं. अहीं आचार्यदेवे
साधक दशाथी एवी शरूआत करी छे के पूर्णता लीधा वगर रहे नहीं. हुं विकार तरफ नथी नमतो, एटले के
विकारी पर्यायनो आदर नथी करतो. ‘नम:’ मां साधक पर्याय छे अने ‘समयसाराय’ मां शुद्ध स्वभाव–ते तरफ
परिणमवानो भाव छे.
ओछा ज्ञानने लीधे जेटलुं बहिरमुख लक्ष जाय तेटलो रागद्वेष थया वगर रहे नहीं, एटले अहीं
आचार्यदेवे ‘विकारी पर्यायनो हुं नाश करूं छुं’ एम नास्तिथी वात न लेतां “ शुध्ध स्वभाव तरफ ढळुं छुं” एम
अस्तिथी वात उपाडी छे. आमां श्रध्धाथी मांडीने ठेठ केवळज्ञान दशा सुधीनी वात छे. श्रद्धा ते वस्तु छे अने
शुद्ध स्वभाव तरफ परिणमननो ‘भाव’ ते पर्याय छे.
आ पहेला कळशमां आचार्यदेव कहे छे के:–हुं मारा शुद्ध स्वभावनो ज अंतरथी आदर करूं छुं. निर्मळ
स्वभावनो आदर करता निर्मळ पर्याय प्रगटे छे. स्वरूप कायम राखीने निर्मळ परिणतिनुं प्रगटवुं ए बेने ज
लक्षमां लीधा छे; निर्मळ पर्यायनी उत्पत्तिमां रागादिनो व्यय सहेजे आवी जाय छे.
धर्म तो आत्मानो स्वभाव छे. स्वभावथी बहारनुं वलण ते अधर्म छे. पोते अंतरनी चीज छे, जेटली
बहारनी चीज छे तेमां मारूं परिणमन ज नथी, हुं एकलो शुध्ध सहज स्वाभाविक वस्तु छुं एवा ‘समयसार’
मां बंध–मोक्षनी अपेक्षा पण लेवा जेवी नथी–एवा स्वभाव तरफ ढळुं छुं.