: ८४ : आत्मधर्म : चैत्र १ : २००१
आ मंगळिकनो पहेलो ज कळश छे, तेमां आचार्यनी भावना छे के–आत्मा सहज स्वरूप अविनाशी
वस्तु छे, तेमा व्रत–दया आदिना बधा भावो विकार छे, ते विकार भाव तरफ परिणमवा मागतो नथी, पण
ध्रुव स्वरूपनी पर्याय तरफ ज ढळुं छुं. आमां अप्रतिहत भावनी वात मूकी छे–पाछा फरवानी वात ज नथी.
जगतमां कहेवाय छे के “ नाणांवाळो कन्या लीधा वगर पाछो फरशे नहि”; नाणुं एटले शुं? नाण
एटले ज्ञान पण थाय छे. अहीं तो आचार्य देव कहे छे के:–शुध्ध आत्म स्वरूपमां वळ्या ते वळ्या, ते शुध्ध
परिणति लीधा विना हवे अमे पाछा फरशुं नहीं. ‘नमःसमयसार’ ––शुद्ध स्वरूपमां ज मन–वचनथी ढळुं छुं,
वाणीमां पण बीजानो आदर नथी.
आ समयसारमां ढळनार ज पंचपरमेष्टि अरिहंत सिध्ध के आचार्य–उपाध्याय–साधु थाय छे.
नमस्कारमंत्रना पहेला ज पदमां कह्युं छे के “ नमो अरिहंताणं” राग–द्वेष टाळ्या तेने नमस्कार! एटले के हवे हुं
राग–द्वेष तरफ नहि ढळुं, राग–द्वेष रहित स्वभावमां ज ढळुं छुं. आ पांच नमस्कारना पदनुं आखुं स्वरूप “
नमो समयसाराय ” मां कही दीधुं छे, कहेनार पोते आचार्यपदे छे अने सिद्धपदे अल्पकाळमां पहोंचवाना छे.
नमस्कार क्यारे कहेवाय? के अरिहंतने नमन करनार पोतानो राग–द्वेषरहित साचो स्वभाव माने तो
ते अरिहंतने नम्यो छे. जे अरिहंतने नमे ते अरिहंत थाय अने सिद्धने नमे ते सिध्ध थाय.
आमां एकला परिणमन स्वभावनी ज वात छे. समय एटले पोताना ज्ञानपणे ज थतो. तेमां रागपणे
थवानो स्वभाव नथी–हुं रागपणे थतो ज नथी, हुं पूर्ण स्वरूपना ज आदरमां रहुं, तेमां कांई विघ्न नथी.
पांच पद–अरिहंत, सिद्ध आचार्य, उपाध्याय अने साधु; आ पांच पदमांथी साधु, अरिहंत अने सिद्ध ए
त्रण पद तो दरेक मुक्त थनार जीवने आवे ज, आचार्य अने उपाध्याय ए बे पद तो कोईने आवे अने कोईने
न पण आवे. जे समयसार तरफ नम्यो तेने सिद्धपद थाय ज, वच्चे विघ्न आवे नहीं. आत्माना स्वरूपमां जे
नम्या तेने कर्म नडे एवुं अमारी पासे नथी. कोई कर्म, कोई काळ के कोई क्षेत्र आत्माने नडतां नथी.
अरिहंत के सिद्ध थया ते “नम: समयसाराय” एम कहे नहीं, केमके तेओ तो पूर्ण थई गया छे.
आचार्यदेव कहे छे के हुं शुद्ध आत्मामां ज नमुं छुं, पुण्य के पापनी वृत्तिमां हुं नमतो नथी. अवस्थामां राग होवा
छतां कह्युं छे के हुं ते रूपे परिणमतो नथी, ते तरफ नमतो नथी, परिणमतां छतां नथी परिणमतो एम “नम:
समयसाराय”मां कह्युं छे.
अरिहंत के सिद्धने कोईने नमस्कार करवानुं होय नहीं केमके तेओ पूर्ण छे, तथा अज्ञानी परमपदने
नमस्कार करी शके नहीं केमके ते अरिहंत के सिद्धनुं स्वरूप जाणतो नथी, अने अरिहंत के सिद्धनुं स्वरूप जाण्या
विना नमस्कार करे कोने? तेथी नमस्कार करवापणुं तो आचार्य–उपाध्याय साधु अने सम्यग्द्रष्टिने ज होय छे.
वंद्य–वंदक भावना भेद रागमिश्रित छे, साधक दशामां नमस्कारनो विकल्प ऊठे छे, छतां हुं ते रूपे
परिणमतो नथी. अहीं विकल्प छे छतां हुं ते रूपे थतो नथी एवा स्वभावना जोरमां” विकल्पनो व्यवहार छे
तेने मात्र जाणे छे, ते तरफ आदर नथी. एकला शुध्ध स्वभाव तरफ ज ढळुं छुं, वच्चे रागादि आवे तेनो आदर
नथी एटले कह्युं के हुं ते रूपे परिणमतो ज नथी.
एकने नमस्कारना यथार्थ भावमां अनंत समाई जाय छे. एकथी अनंत जुदा नहीं, अनंतथी एक जुदो
नहीं, केमके स्वरूपमां जुदापणुं नथी अर्थात् बधानुं स्वरूप सरखुं ज छे.
आत्मा एकलो ज्ञाता द्रष्टा, तेनी हालतमां राग–द्वेष थाय तेनो आदर नथी, पूर्ण स्वरूपने आदरवानो
ज भाव छे. एकला ज्ञाता स्वरूप तरफ ज परिणमन ए ज मारूं सत्व अने एज मारूं जीवन छे, एवा जोरमां
वच्चे रागादि आवे तेने पोताना मानतो ज नथी. (पर्यायने तो भूली ज गयो छे.)
जयधवलमां पंडित मरणनो अधिकार छे ते (मंगळिक तरीके वांचवा माटे) लक्षमां आव्यो हतो, आमां
पण ए ज आव्युं छे. मृत्यु वखते पण स्वभाव तरफनुं अंतर वलण छूटे नहीं. जीवनमां शुध्ध स्वरूप तरफनुं ज
वलण, मरण टाणे पण शुद्ध परिणतिमां ज परिणमन अने देह छूटया पछी पण ज्यां जाय त्यां “नमो
समयसाराय”––शुद्ध स्वरूपमां ज परिणमन! स्वरूपनी अंतरदशामां स्वभाव तरफ ज वलण छे, ते वलण
केवळज्ञान लीधा विना छूटे नहीं.
आ समयसारनां नमनमां अने जगतना लौकिक नमनमां फेर छे:
नमन नमनमें फेर है, बहोत नमे नादान;
दगलबाजी दुणा नमे, चित्ता चोर कमान.