: चैत्र १ : २००१ आत्मधर्म : ८५ :
नमन नमनमां फेर होय छे, चीत्तो हरणने मारवा माटे नमे छे, चोर नमे छे ते घरमां पेसी जवा माटे
नमे छे, राजाने नमे छे त्यां लोभनी खातर नमे छे, अंदर कांईक दगो होय ते बहारमां बमणो नमे, पण ए
बधां नमन क्षणिक छे, पराधीन थवा माटे छे, अशांति अने पर पदार्थ मेळववाना भाव माटे छे, आ नमन
अविनाशी छे, स्वाधीनता अने शांति माटे छे.
––आचार्यदेव कहे छे के “अमे राग–द्वेष अने शरीरना संयोगने संकोचीए छीए अने अंतर स्वरूपमां
नमीए छीए. अंतर वलणनुं फळ अंतरमां आवे छे. जेटली वृत्ति बहार जाय ते तरफ आदर नथी. आखो
संसार अने संसार तरफना वलणना भावथी हवे अमे संकोचाईए छीए. बहारना पर पदार्थना वलणथी
संकोचाईने चिदानंद ध्रुव स्वभावी एवा ‘समयसार’मां समाई जवा मागीए छीए, बहारनो संयोग के
शरीरादि स्वप्ने पण जोईता नथी, बहारना भाव अनंतकाळ कर्या, हवे तेनो आदर नथी. पूर्ण थवा पहेलांं
शुभाशुभ थाय ते तरफ हवे आदर नथी. अमे बहारथी संकोचाईए छीए, हवे अमारूं परिणमन अंदर ढळे छे;
ते बहारमां जणाय नहीं. अंतर स्वरूपना वलणथी ते केवळज्ञान सुधी ए बधुं आत्मामां समाई जाय छे, तेनुं
फळ बहारमां देखातुं नथी. तेने कोई रोकी शके नहीं. अमारा नमनमां केवळज्ञाननी प्राप्ति पाछी फरे नहीं.” आ
रीते आचार्यदेवे “नम: समयसाराय”मां एकलो अप्रतिहत भाव वर्णव्यो छे; चौद पूर्व, बार अंग अने
केवळज्ञानीओनां पेट मूकी दीधां छे.
“नम: समयसाराय” तेमां समयसार ते शुद्ध द्रव्य अने नम: ते पर्याय छे. ‘समयसार’ एवो शुद्ध
त्रिकाळ ध्रुव ते शुद्ध परमार्थ द्रष्टि अने नम: ते पर्याय बतावे छे; आ रीते ‘नम: समयसाराय’ कहेतां स्वभाव
त्रिकाळ सिद्ध थयो अने शुद्ध पर्याय नवी प्रगटे छे ते पण बताव्युं.
श्री आनंदघनजी महाराजे कह्युं छे के:–
धर्म जिनेश्वर गाउं रंगशुं
भंग म पडशो प्रीत हो...जिने.
बीजो मन–मंदिर आणुं नहि
ए अम कुळवट रीत हो...जिने.
आमां पण एकला शुध्ध स्वभाव तरफ नमवानी ज वात मूकी छे–भंग पडवानी वात ज नथी. आचार्य
कहे छे के द्रव्ये अने भावे स्वभावने ज नमन करूं छुं. वाणी द्वारा पण आत्म स्वभावने ज स्थापुं छुं. शुद्ध
आत्मस्वभाव ते त्रिकाळ पण छे अने शुध्ध पर्याय ते क्षणिक पण छे, एकांत ध्रुव के एकांत बदलतो–क्षणभंगुर
नथी. ध्रुव स्वभाव जे अविनाशी शक्तिपणे आनंदघन पड्यो छे. तेनी ज पर्याय प्रगटीने आवशे, ते अवस्थाने
रोकवा जगतमां कोई समर्थ नथी ते अवस्था बहारथी क्यांयथी नहीं आवे.
‘नम: समयसाराय’मां ज बधुं आवी गयुं छे, पण तेटलाथी कोई न समजे अने कहे के–आत्माने कोई
क्रिया खरी के नहीं? वीतराग भगवान क्रिया माने छे के नहीं? तो कह्युं के– ‘स्वानुभुत्या चकासते’ प्रथम
सामान्य लीधा पछी हवे विषेश ल्ये छे.
आत्माना स्वरूपने अनुसरीने जे अंतर क्रिया तेनुं उपजवुं छे. शरीर, मन, वाणीनी क्रिया तो नहीं पण
बाह्य आचरण उपर लक्ष जवानो जे शुभभाव तेनाथी पण प्रगटतो नथी, पण ‘स्वानुभुत्या चकासते’ एटले
पोताथी ज प्रकाशे छे. पोतानी अनुमति [पर्याय] रूप क्रियाथी प्रकाशे छे. पोताना निर्मळ वेदनमां दयादिना
भावना वेदननो आधार नथी. अंतर स्वभावनी एकाग्रता द्वारा ज प्रगट थाय छे–बीजाथी नहीं. अहीं
अस्तिथी ज वात लीधी छे, अस्ति कहेतां परथी नास्ति समजी लेवी.
‘छे अंदर’ तेना उपर जोर कर! जोर कर! बाह्य वलणना भावने कर शिथिल! अने अंतर स्वभाव
उपर जोर लाव! अंदर छे तेना उपर जोर कर, तो निर्मळता प्रगटी जशे. अंतरद्रष्टि, अंतर वलण अने अंतर
एकाग्रता वगर मुक्ति नथी, बाकी बीजा बधा रखडवाना रस्ता छे.
हवे कोई पूछे के–अंदर हतुं ते प्रगट्युं के बहारथी नवुं आव्युं? तो कहे छे के ‘चित्स्वभावाय भावाय’
चित् एटले ज्ञान; एकला ज्ञानस्वभावे छे; तेना जोरे ज निर्मळता प्रगटे छे, आमां बीजुं कांई बहारनुं न
आव्युं. जाणवुं ए ज स्वरूप छे, तेमां परनुं करवा मूकवानो स्वभाव नथी. ज्ञान ए ज पोतानो स्वभाव छे,
तेनो प्रथम विश्वास कर्या वगर फळ प्रगटे नहि.
‘चित् स्वभावाय’ एटले ज्ञान ए ज स्वभाव छे अने ‘भावाय’ कहेतां–त्रिकाळ छे. आवा अंतर
स्वभावनो विश्वास ए ज ज्ञाननी (आत्मानी) क्रिया छे. खावा पीवानी क्रिया आत्मानी नथी, खावा–पीवामां
सुख मान्युं छे ते कदी जोयुं नथी छतां विश्वास कर्यो छे, त्यां तो विनाशीनो विश्वास छे, ते अज्ञाननी क्रिया छे.