Atmadharma magazine - Ank 018
(Year 2 - Vir Nirvana Samvat 2471, A.D. 1945)
(Devanagari transliteration).

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: ८६ : आत्मधर्म : चैत्र १ : २००१
अने अंतर स्वभावनो विश्वास ए ज्ञानीनी क्रिया छे.
ऊनाळामां गरमीनी लू वाती होय, सख्त गरमी पडती होय अने ठंडी हवा आवे त्यां ‘हाश’ एम थई
जाय छे तेनुं शुं कारण? प्रथम लू उपर लक्ष हतुं त्यारे शरीर उपरना रागना कारणे ते लू उपर द्वेष हतो, अने
ठंडी हवा उपर लक्ष गयुं त्यां शरीर उपर राग छे तेथी ‘हाश’ कहे छे केमके ठंडी हवाने सुखनुं कारण मान्युं छे–
तेमां सुख कल्प्युं छे; पण भाई! ‘हाश’ परमां नथी–तारामां छे. तारा सुखस्वरूपने चूकीने परमां सुखनी
कल्पना ते तारूं अज्ञान छे, तने तारो महिमा नथी–विश्वास नथी.
अहाहा! शुं वस्तु स्वरूप छे! पण अज्ञानीने पोताना ज्ञान स्वभावनुं माहात्म्य नथी, ‘मारो ज्ञान
स्वभाव ज मारी शांतिनुं सत्तास्थान छे, ए ज मारूं सत्ताधाम छे’ एवो विश्वास नथी. प्रभु! तारा
ज्ञानस्वभाव सिवाय खेतर, जंगल के बंगलामां तारूं सत्तास्थान नथी. स्वाध्यायमंदिरमां बेठां के निरांत! एम
माने पण निरांत छे क्यां? स्वाध्याय मंदिरमां छे के तारामां छे? प्रभु! तुं चित्स्वभावी छो! तारा
आत्मधाममां ज तारी शांति छे. तारूं समाधि मरण कोई बाह्य क्षेत्रथी नहि आवे, पण तारा ज्ञान स्वभावथी ज
आवशे. तुं ज्ञान स्वभावी वस्तु छो!
हवे ज्ञाननुं स्वरूप केवुं छे? ते कहे छे:
‘सर्व भावांतरच्छिदे’:–एकला ज्ञान स्वरूपमां सर्व परने–त्रणकाळ त्रणलोकने–एक समयमां पूर्णपणे
जाणवानो स्वभाव छे; जाणवामां राग नहि, विकार नहि के निमित्त नहीं, एवो ज्ञान स्वभाव छे. “एवा ज्ञान
स्वभावने हुं प्रणमीने नमस्कार करूं छुं, आ नमन पूर्ण थतां सुधी रहे छे. पूर्णदशा थया पछी तेमां वधवा पणुं
थतुं नथी, एमने एम रहे छे,” आ प्रमाणे आचार्य देवे ‘समयसार’मां प्रणमीने नमस्कार कर्या छे अने
‘समयसार’नुं शुद्ध स्वरूप वर्णवीने पोताना शुद्ध आत्माने ज ईष्ट देव मानीने मंगळिक तरीके तेने ज नमस्कार
कर्या छे.
जीवे शुं करवुं योग्य छे?
जीज्ञासु जीवोए आत्मा –जे निश्चल चैतन्यरूप पदार्थ छे तेने १ पढवा–भणवा योग्य, २
ध्यान करवा योग्य, ३ आराधवा योग्य, ४ पूछवा योग्य, प सांभळवा योग्य, ६ अभ्यास करवा
योग्य, ७ उपार्जन करवा योग्य, ८ जाणवा योग्य, ९ कहेवा योग्य, १० प्रार्थना योग्य, ११ शिक्षा
योग्य, १२ देखवा योग्य, अने १३ स्पर्श करवा योग्य छे, के जेथी आत्मा सदा स्थिर बन्यो रहे.
[श्री अमितगति आचार्यकृत योगसार अध्याय ६ गाथा ४९]
रुचि अने पुरुषार्थ
जेने जे वस्तुनी रुचि होय ते वस्तुनी ते मर्यादा न बांधे–तेनी हद न होय. जेने पैसानी रुचि होय ते
लाख–बेलाख के करोड एवी मर्यादा न बांधे पण जेटला मळे तेटला लेवानी भावाना होय, तेम जेने आत्मानी
रुचि थई होय ते आत्महित माटे कोई पण मर्यादा न बांधे, आत्माना बेहद स्वभावनी रुचि थई तो तेमां कांई
हद न होई शके, पण काळनी अने पुरुषार्थनी मर्यादा तोडीने बेहद पुरुषार्थ द्वारा संपूर्ण स्वरूप मेळवे ज.
“आत्मानुं स्वरूप बे त्रण दिवसमां के अमुक वखत सुधीमां मळे तो लेवुं” एम जे काळनी मर्यादा
बांधीने स्वरूप मेळववा मागे छे तेने आत्मानी रुचि ज नथी; जो खरेखर आत्मानी रुचि होय तो मर्यादा होय
नहि. संसारना कार्यो अनंत–अनंत काळथी करतो आव्यो छे. छतां तेनी कांई मुदत मारतो नथी अने अहीं मोक्ष
साधनमां मुदत मारे छे तो तेने आत्मानी रुचि नथी पण संसारनी ज रुचि पडी छे. जो तने खरेखर आत्मानी
रुचि थई होय तो संसार भाव मूकी दईने आत्मा माटे ज जीवन अर्पी दे! अरे! एक तो शुं पण अनंत–अनंत
भव आत्मा माटे आपवा पडे तो पण आपवा तैयार छुं, गमे तेम थाव पण मारे तो आत्मानुं करवुं ज छे–एम
आत्मानी रुचि करीने काळनी मर्यादा तोडी नांख! आम करवाथी अनंत भवनो नाश थईने अल्प काळमां ज
तारी मुक्ति अवश्य थई जशे. काळनी मर्यादा तोडीने जे आत्मा माटे अनंतभव अर्पण करवा तैयार थयो छे
तेने भव होय ज नहि. आत्मा तरफनी यथार्थ रुचि होवाथी–ते रुचिना जोरे काळनी मर्यादा तोडीने–उग्र पुरुषार्थ
द्वारा ते अंक–बे भवमां ज मुक्त थई जवानो! पण जो काळनी मर्यादा बांधी तो अनंतकाळे पण जन्म मरणनो
अंत नहि आवे. मर्यादाना लक्षे मुक्तिनो अमर्यादीत पुरुषार्थ फाटे नहि; जे तरफनी रुचि होय ते तरफनो
पुरुषार्थ उपडे छे, माटे प्रथम क्षेत्र काळादिनी मर्यादाने तोडीने रुचि फेरवो.