Atmadharma magazine - Ank 019
(Year 2 - Vir Nirvana Samvat 2471, A.D. 1945)
(Devanagari transliteration).

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: चैत्र २ : २००१ आत्मधर्म : १०५ :
शके, अने आप्त पुरुषे प्रणीत करेलां शास्त्रोने सुशास्त्र कहेवाय छे, जीवे पात्रता मेळवी आ वस्तु यथार्थ समजी
लेवानी जरूर छे. ते उपरथी एम पण जणाशे के–
जैनधर्म गुणपूजा स्वीकारे छे; व्यक्तिपूजा नहि. गुण गुणी
वगर होतो नथी तेथी गुणनी पूजा ते ज जैनशास्त्रने मान्य छे.”
[आत्मधर्म ३ “जैनधर्म” ए शीर्षक हेठळनो लेख पा.–४०]
जैनधर्मनुं मुख्य रहस्य ‘वीतरागता’ छे, वीतरागताने ‘स्वनी अहिंसा’ कहेवामां आवे छे; केमके कोई
जीव खरेखर परनी हिंसा के अहिंसा करी शकतो नथी, स्वनी हिंसा के स्वनी अहिंसा पोताना भावे करी शके छे.
आ अहिंसानुं स्वरूप भगवाने नीचे प्रमाणे कह्युं छे:–
भगवाने प्ररूपेली साची अहिंसा
‘अहिंसा ते चारित्रनुं अंग छे अने सम्यक्चारित्र सम्यग्दर्शन वगर होई शके नहि, तेथी मिथ्याद्रष्टिने
खरी अहिंसा होती नथी.
जैन दर्शन शिक्षण वर्ग
ता. ६ – ५ – १९४५ रविार बीजा चैत्र वद – ९ थी एक मास सुधी जैनदर्शना अभ्यास
माटे एक शिक्षणवर्ग खोलवामां आवशे; १४ वर्षथी उपरना उमेदवारोने दाखल करवामां
आवशे. शिक्षणवर्गमां दाखल थनारने माटे भोजनी तथा रहेवानी सगवड स्वाध्याय मंदिर
ट्रस्ट तरफथी थशे. आ वर्गमां दाखल थवा ईच्छा होय तेमणे नीचेना सरनामे लखवुं: –
श्री जैन स्वाध्याय मंदिर ट्रस्ट सोनगढ–काठियावाड
सूचना–जेनी अरजी नामंजुर थवा संबंधे समाचार ता. १–५–४५ सुधीमां न मळे तेओए वर्गमां हाजर थवुं.
लौकिक मान्यता एवी छे के–पर जीवोनी हिंसा न करवी एवो धर्म भगवाने उपदेश्यो छे; पण ए
मान्यता भूलवाळी छे. ‘कोई जीवने मारवो नहि, दुःख देवुं नहि’ एवो उपदेश दरेक घरमां लोको आपे छे,
शाळाओमां पण ते उपदेश ओछे के वधारे अंशे मळे छे; हवे जो तेने भगवाने धर्म कह्यो होय तो भगवानने
लौकिक पुरुष गणवा जोईए; पण भगवानने तेमनुं अनंत वीर्य प्रगट्या पछी जे दिव्यध्वनि प्रगट थाय छे
तेमां तो एवो उपदेश होय छे के–आ लौकिक मान्यता खोटी छे; कोई कोईनी हिंसा करी शके नहि, पण हिंसाना
विकारी भाव जीव करी शके, अने ते रीते (विकारी भावथी) जीव पोतानी हिंसा अनादिथी करी रह्यो छे.
भगवाने अहिंसानुं स्वरूप नीचे मुजब कह्युं छे:–
जीवमां मोह (मिथ्यात्व) अने राग–द्वेषनुं उत्पन्न थवुं ते हिंसा छे अने ते पेदा न थतां
आत्मस्वरूपमां स्थित रहेवुं ते अहिंसा ज खरो धर्म छे. द्रव्यप्राणोनो घात पण भावहिंसा विना कहेवातो
नथी. जे जीवो उक्त अहिंसानुं सर्वथा पालन न करी शके ते जेटले अंशे ते साची अहिंसाने पाळी शके
तेटले ज अंशे अहिंसक छे अने शेष अंशे हिंसाना भागी छे. ए ध्यान राखवानी वात छे के–जेटले अंशे
वीतरागभाव छे ते ज अहिंसा छे, अने शुभराग पण हिंसा छे. आ अहिंसा ते महावीरे प्ररूपेल छे.
भगवान अलौकिक आत्मा हता तेथी तेमणे बतावेली अहिंसा पण अलौकिक होय ते ज न्यायसर छे.
पोतानुं स्वरूप यथार्थपणे समजीने मिथ्यादर्शन टाळ्‌या सिवाय कोई पण जीव अहिंसक, सत्यरूप, अचौर्यरूप,
ब्रह्मचर्यरूप के अपरिग्रहरूप अंशे के पूर्णताए थई शके नहि.
स्पष्टपणे दिव्यध्वनिथी ज्यारे ते जगजाहेर थतुं
हतुं त्यारे शासनभक्त देवो दुदुंभिना दिव्यनादथी तेने वधावी लेता हता.
भगवाननो आ उपदेश सांभळी घणा भव्य जीवो धर्म पाम्या–एटले के सम्यग्द्रष्टि थया;
सम्यग्दर्शनपूर्वक सम्यक्चारित्री थया; तेओ ज्यारे शुद्धभावमां न रही शकता त्यारे अशुभभाव टाळी शुभमां
रहेता; कोई जीवनी हिंसा करवानो भाव ते पापभाव होवाथी तेवा भावो तेमणे टाळ्‌या. जेओ स्वरूप न
समज्या पण स्वरूप समजवानी रुचिवाळा थया तेओए पण हिंसाना तीव्र अशुभभावोने टाळ्‌या. जेओने
स्वरूपसमजवा तरफ