Atmadharma magazine - Ank 019
(Year 2 - Vir Nirvana Samvat 2471, A.D. 1945)
(Devanagari transliteration).

< Previous Page   Next Page >


PDF/HTML Page 11 of 17

background image
: १०६ : आत्मधर्म : चैत्र २ : २००१
वलण न थयुं तेओ मंद कषाय तरफ प्रेराया अने तेथी तेओए पण अशुभ भाव केटलेक अंशे छोडया–व्यवहारी
अज्ञानी लोकोनी भाषामां–परजीवोनी हिंसा ते कारणे अटकी ते कार्यने अहिंसा वधी–जीवो बच्यां–एम कहेवानो
रूढ प्रसिद्ध व्यवहार छे; तेथी ‘भगवानना उपदेशथी परजीवोनी हिंसा अटकी’ एम लौकिक रीते कह शकाय, पण
शब्दप्रमाणे कोई तेनो अर्थ करे तो भगवान परना कर्ता ठरे–के जे असत्य छे.”
[आत्मधर्म अंक ६ ‘महावीर
जीवनचरित्र पान–९३–मांथी]
भगवान महावीर विश्वउपकारक अने महान तीर्थना प्रवर्तक तीर्थंकर महापुरुष हता; तेथी भगवानना
जन्मजयंतिना मांगलिक दिवसने जनसमूह ऊजवे ए स्वाभाविक छे, परंतु जयंति ऊजवनार भगवानना
परिपूर्ण गुणोनुं स्वरूप ओळखीने, परमार्थे पोतानुं स्वरूप पण तेवुं ज छे–एवी श्रद्धा करे–तेने भगवान जेवा
पोताना परिपूर्ण गुणोनो अंश प्रगटे, अने जेने तेवा गुणोनो अंश प्रगटे तेणे ज वास्तविकपणे भगवाननी
जयंति ऊजवी गणाय; तेथी साचुं सुख जोईतुं होय तेमणे पहेलांं साची श्रद्धा–ज्ञान करवां जोईए.
जो कोई जीव एकवार पण द्रव्यद्रष्टि धारण करे तो तेनो अवश्य
मोक्ष थाय ज
(१) द्रव्यद्रष्टिमां भव नथी.
आत्मा वस्तु छे; वस्तु एटले शक्ति–सामर्थ्यथी पूर्ण त्रिकाळ एकरूप टकतुं द्रव्य. ए द्रव्यनुं वर्तमान तो
दरेक समये होय ज. हवे ए वर्तमान जो निमित्तने आधीन होय तो विकार छे अर्थात् संसार छे; अने जो ते
वर्तमान स्वलक्षे–स्वाश्रयपणे होय तो, द्रव्यमां विकार न होवाथी ते पर्यायमां पण विकार होय नहि एटले के
मुक्ति ज होय. द्रष्टिए जे द्रव्यनुं लक्ष कर्युं छे ते द्रव्यमां भव के भवनो भाव नथी, तेथी ते द्रव्यना लक्षे थती
अवस्थामां पण भव के भवनो भाव नथी. एटले द्रव्य द्रष्टिमां तो त्रिकाळ मुक्ति ज छे तेमां भव नथी.
जो द्रव्यनी वर्तमान अवस्था पोताना लक्षने चूकीने जीव करतो होय तो ते विकारी छे, छतां पण ते
विकार तो एक ज समय पूरतो छे, त्रिकाळ द्रव्यमां ते विकार नथी, एटले त्रिकाळी द्रव्यना लक्षे वर्तमान
अवस्था थाय तेमां उणप के विकार नथी अने ज्यां उणप के विकार नथी त्यां भवनो भाव नथी अने भवनो
भाव नथी माटे भव पण नथी, एटले द्रव्यस्वभावमां भव नहि होवाथी द्रव्यस्वभावनी द्रष्टिमां भवनो
अभाव ज छे. द्रव्यद्रष्टि भवने स्वीकारती नथी.[रात्रिचर्चा]
आत्मानो स्वभाव निःसंदेह छे तेथी तेमां १–संदेह, २–रागद्वेष के ३–भव नथी–ते कारणे सम्यग्द्रष्टिने
१–पोताना स्वरूपनो संदेह नथी, २–रागद्वेषनो आदर नथी, अने ३–पोताने भवनी शंका नथी. द्रष्टि एकला
स्वभावने ज जुए छे, द्रष्टि पर वस्तुने के पर निमित्तनी अपेक्षाथी थता विभाव भावोने पण स्वीकारती नथी,
तेथी विभावभावना कारणे थता भव पण द्रष्टिमां नथी. द्रष्टि एकली स्ववस्तुने ज जोती होवाथी–तेमां पर द्रव्य
साथेनो निमित्त–नैमित्तिक संबंध पण नथी. निमित्त–नैमित्तिक संबंध वगर एकलो स्वभावभाव ज रह्यो,
स्वभावभावमां भव नथी–तेथी–द्रव्यद्रष्टिमां भव नथी. आम होवाथी द्रव्यद्रष्टिनुं जोर नवा भवनुं बंधन पडवा
देतुं नथी; अने द्रव्यद्रष्टिना भान वगरना भावमां भवनुं बंधन पड्या वगर रहेतुं नथी; केमके तेनी द्रष्टि द्रव्य
उपर तो छे नहि, पर्याय उपर अने राग उपर द्रष्टि छे–ते द्रष्टि बंधनुं ज कारण छे.
(२) द्रव्यद्रष्टि भवने बगडवा देती नथी.
द्रव्यद्रष्टि थया पछी कदाच अस्थिरता रही जाय अने एक–बे भव होय तो पण ते भव बगडता नथी.
द्रव्यद्रष्टि पछी जीव कदाच लडाईमां उभो होय अने बाण–उपर बाण छोडतो होय अने नील–कापोत लेश्याना
अशुभभाव आवे छतां ते वखते नवा भवना आयुनो बंध पडे नहि, केमके अंदर द्रव्यद्रष्टिनुं बेहद जोर पड्युं
छे ते जोर भवने बगडवा देतुं नथी. तेम ज भवने वधवा देतुं नथी, ज्यां द्रव्यस्वभाव उपर द्रष्टि पडी त्यां
स्वभाव तेनुं कार्य कर्या वगर रहेशे नहि; तेथी द्रव्यद्रष्टि थया पछी हलकी गतिनो बंध न पडे तेमज भव वधे
पण नहि. एवो ज द्रव्यस्वभाव छे. (२१–९–४४ चर्चाना आधारे)
(३) द्रव्य द्रष्टिने शुं मान्य छे.
द्रव्यद्रष्टि कहे छे के– “हुं एकला आत्माने ज स्वीकारूं छुं.” एकला आत्मामां परनो संबंध होय नहि,
तेथी परना संबंधे थता भावोने ते द्रष्टि स्वीकारती नथी,