Atmadharma magazine - Ank 019
(Year 2 - Vir Nirvana Samvat 2471, A.D. 1945)
(Devanagari transliteration).

< Previous Page   Next Page >


PDF/HTML Page 12 of 17

background image
: चैत्र २ : २००१ आत्मधर्म : १०७ :
अरे! चौद गुणस्थान भेदो पण पर संयोगे थता होवाथी तेनो पण स्वीकार नथी. द्रष्टिने तो एकलो आत्म
स्वभाव ज मान्य छे. जे जेनो स्वभाव होय तेनो तेमां कदी जरा पण अभाव थाय नहि अने अंशे पण
अभाव के फेरफार थाय ते वस्तुनो स्वभाव नथी; एटले जे त्रिकाळ एकरूप रहे छे ते ज वस्तुनो स्वभाव छे
अने द्रष्टि तेने ज माने छे. द्रव्यद्रष्टि कहे छे के:– “हुं जीवने मानुं छुं–ए जीव केटलो?...संबंध विना रहे तेटलो...
एटले के सर्व पर पदार्थनो संबंध काढी नांखतां जे एकलुं स्वतत्त्व रहे ते जीव छे–तेने ज हुं स्वीकारूं छुं. मारा
लक्ष्य–चैतन्य भगवानने परनी अपेक्षाए ओळखाववो ते चैतन्य स्वभावमां लाजप छे–मारा चैतन्यने परनी
अपेक्षा नथी. एक समयमां परिपूर्ण द्रव्य ते ज मने मान्य छे.”
[१८–१–४५ ना व्याख्यानमांथी समयसार
गाथा–६८]
(४) मोक्ष पण द्रव्यद्रष्टिने आधीन छे.
जो कोई जीव एकवार पण द्रव्य द्रष्टिने धारण करे तो ते जीव जरूर मोक्ष पामे ज. अने द्रव्यद्रष्टि वगर
बीजां अनंत–अनंत उपायो करे तो पण जीव मोक्ष पामे ज नहि. श्रीमद् राजचंद्रजी ‘सम्यक्त्वनी प्रतिज्ञा’ संबंधे
कहे छे के:–“मने ग्रहण करवाथी, ग्रहण करनारनी ईच्छा न थाय तो पण मारे तेने पराणे मोक्ष लई जवो पडे
छे.” तथा तेमणे ज कह्युं छे के–“सम्यग्दर्शननी प्राप्ति विना जन्मादि दुःखनी आत्यंतिक निवृत्ति बनवायोग्य
नथी.” माटे जेने मोक्ष जोईतो होय तेणे द्रव्यद्रष्टि धारण करवी जोईए. जे जीवने द्रव्यद्रष्टि थई छे तेनो मोक्ष छे
ज, अने जे जीवने द्रव्यद्रष्टि नथी तेने मोक्ष नथी ज. ए रीते मोक्ष द्रष्टिने आधीन छे.
(५) ज्ञान पण द्रष्टिने आधीन
जे जीवने द्रव्यद्रष्टि नथी ते जीवनुं ज्ञान साचुं नथी. भले जीव अगियार अंगनुं ज्ञान करे पण जो
द्रव्यद्रष्टि न करे तो तेनुं बधुं ज्ञान मिथ्याज्ञान ज छे; अने कदाच नवतत्त्वनां नाम न जाणतो होय छतां पण जो
जीवने द्रव्यद्रष्टि होय तो ते जीवनुं ज्ञान सम्यग्ज्ञान कहेवाय छे. सम्यग्दर्शनने नमस्कार करतां श्रीमद्
राजचंद्रजीए कह्युं छे के– “अनंत काळथी जे ज्ञान भव हेतु थतुं हतुं ते ज्ञानने एक समयमात्रमां जात्यंतर करी
जेणे भवनिवृत्तिरूप कर्युं ते कल्याणमूर्ति सम्यग्दर्शनने नमस्कार.” द्रव्यद्रष्टि वगरनुं ज्ञान मिथ्याज्ञान छे अने ते
संसारनुं कारण छे; द्रव्यद्रष्टि थतां ज्ञान सम्यक्पणुं पामे छे–तेथी ज्ञान पण द्रष्टिने आधीन छे.
[नोंध:–द्रव्यद्रष्टि कहो के आत्मस्वरूपनी ओळखाण कहो, तेमज सम्यग्द्रष्टि, परमार्थ द्रष्टि, वस्तु द्रष्टि,
स्वभाव द्रष्टि, यथार्थ द्रष्टि, भूतार्थ द्रष्टि–ए बधा एकार्थ वाचक शब्दो छे.]
(६) ऊंधी द्रष्टिनी ऊंधाईनुं माहात्म्य
जे जीवोने उपर कही तेवी द्रव्यद्रष्टि न होय ते जीवोने ऊंधी द्रष्टि होय छे. [ऊंधी द्रष्टिनां बीजां पण
अनेक नामो छे जेवां के–मिथ्या द्रष्टि, व्यवहार द्रष्टि, अयथार्थद्रष्टि, खोटी द्रष्टि, पर्याय द्रष्टि, विकार द्रष्टि,
अभूतार्थ द्रष्टि ए बधां एकार्थवाचक शब्दो छे.
] ए ऊंधी द्रष्टि एक समयमां अखंड परिपूर्ण स्वभावने मानती
नथी; एटले एक समयमां अखंडपरिपूर्ण वस्तुनो नकार करवानुं अनंतु ऊंधुंं सामर्थ्य ते द्रष्टिमां छे. आखा
स्वभवनो अनादर करनार ते द्रष्टि अनंता संसारनुं कारण छे, अने ते द्रष्टि एक समयमां महा पापनुं कारण
छे. हिंसा, चोरी, जूठूं, शिकार वगेरे सात व्यसनोना पाप करता पण ऊंधी द्रष्टिनुं पाप अनंतगणुं वधारे छे.
(७) द्रव्यद्रष्टि ए ज कर्तव्य छे.
अनादि–अनादिकाळथी चाल्या आवतां आ संसारना भयंकर दुःखोनो नाश करवा माटे तेना मूळभूत
बीजरूप मिथ्यात्वनो, आत्मानी साची समजणरूप सम्यकत्व द्वारा नाश करवो–ए ज जीवनुं कर्तव्य छे.
अनादिथी संसार परिभ्रमण करतां आ जीवे दया, दान, व्रत, तप, भक्ति, पूजा वगेरे बधुं पोतानी
मान्यताप्रमाणे अनंतवार कर्युं छे अने पुण्य करी स्वर्गनो देव अनंतवार थयो छे, छतां संसार–भ्रमण टळ्‌युं
नथी–तेनुं एक मात्र कारण ए ज छे के जीवे पोताना आत्मास्वरूपने जाण्युं नथी, साची द्रष्टि करी नथी. अने
साची द्रष्टि कर्या वगर भवना निवेडा आवे तेम नथी तेथी आत्महित माटे द्रव्यद्रष्टि करी सम्यग्दर्शन प्रगटाववुं
ए ज सर्व जीवोनुं कर्तव्य छे–अने ते कर्तव्य स्व तरफना पुरुषार्थथी दरेक जीव करी शके छे. ए सम्यग्दर्शन
करवाथी जीवनो जरूर मोक्ष थाय छे.