Atmadharma magazine - Ank 019
(Year 2 - Vir Nirvana Samvat 2471, A.D. 1945)
(Devanagari transliteration).

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: १०८ : आत्मधर्म : चैत्र २ : २००१
ंश्री समयसार शास्त्र अत्यंत अज्ञानीओनुं अज्ञान टाळवा माटे रचायेलुं छे
संक्षिप्त अवलोकन : संपादक : रा. मा. दोशी
दर्शन त्रीजाु
; स्त्र
पर अवलोकन कर्युं हतुं, हवे त्यार पछी आगळनी गाथाओमां आचार्य भगवान शुं कहेवा मागे छे ते जोईए.
[गाथा २३ थी २५]
२८ आ गाथाओमां आचार्य भगवान अप्रतिबुद्धने समजाववा माटे प्रयत्न करे छे. आत्माना यथार्थ स्वरूपने
नहीं समजनारा जीवोने अज्ञानी, अप्रतिबुद्ध, पर्यायबुध्धि के मिथ्याद्रष्टि कहेवामां आवे छे. आ गाथाओ अनादिना
अज्ञानीने उदेशीने कहेली छे. आ गाथामां आचार्यदेव कहे छे के:–
अज्ञानथी जेनी मति मोहित थई छे. तेवा जीवो बध्ध अने अबध्ध पुद्गल द्रव्यने ‘मारूं छे’ एम माने छे.
(शरीरादि बध्ध पुद्गल द्रव्य छे, धन्य धान्यादि अबध्ध पुद्गल द्रव्य छे.) तेवा जीवने कहे छे के वीतराग सर्वज्ञ देवना
ज्ञानमां जीव सदा उपयोग लक्षणवाळो देखायो छे, तो तारो जीव पुद्गळ केम थई शके छे के जेथी “मारूं आ” एम तुं
माने छे; जो जीव पुद्गळ थई जतो होय अने पुद्गळ जीव थई जतुं होय तो तो “ पुद्गळ द्रव्य मारूं छे ” एम तुं
मानी शके, पण तेम तो कदी थतुं नथी.
२९ आ प्रमाणे उपदेश आपी मिथ्या मान्यता छोडवा अप्रतिबुद्धने समजाव्युं.
[गाथा–२६]
३० आचार्य भगवाननुं कथन सांभळवा मांगतो जीव अज्ञानी छे, पण ते पोतानुं अज्ञान टाळवानी
रुचिवाळो छे तेथी वधारे समजवा माटे ते अज्ञानी (अप्रतिबुद्ध) पोते प्रश्न रूपे आ गाथा कहे छे; ते प्रश्ननी गाथामां
अप्रतिबुद्ध शिष्य कहे छे के:–
जो जीव छे ते शरीर न होय तो तीर्थंकर भगवान तथा आचार्यनी स्तुति करीए छीए ते बधीए मिथ्या
(जुठी) थाय छे तेथी अमे तो समजीए छीए के जीव ते देह (शरीर) ज छे.
३१ अप्रतिबुद्ध उपरनी २३, २४, २५ गाथाओ सांभळीने आ प्रश्न रजु करे छे अने ते प्रश्नमां पोतेज कहे
छे के अमे तो जीव अने शरीर एक ज मानीए छीए. अने तेना टेकामां भगवान तथा आचार्य देवना शरीरनी जे
स्तुतिओ करवामां आवे छे तेने दलीलरूपे रजु करे छे. अहीं तो अज्ञानीए पोतानी मान्यताने शास्त्रनो पण टेको छे
एम कह्युं. ए प्रश्न स्पष्ट रीते जणावे छे के आ शास्त्र मुख्य पणे अज्ञानीने समजाववा माटे रच्युं छे.
[गाथा २७ थी ३०: व्यवहार स्तुतिनुं स्वरूप]
३२ अज्ञानीए गाथा २६ मां पोतानी मान्यता जे रजु करी ते भूल भरेली छे एम जणावी तेने यथार्थ स्वरूप
समजाववा माटे आ गाथाओ आचार्यदेवे कही छे.
३३ अहीं आचार्यदेव अज्ञानीने कहे छे के–भाई, नयनुं स्वरूप तुं बराबर जाणतो नथी माटे शरीरनी स्तुतिना
शब्दो उपरथी जीव अने शरीर एक छे एम मानी लीधुं छे. नय विभागने जे जीवो जाणे छे तेओ आ स्तुतिनो भाव
बराबर समजे छे. तेथी ते स्तुतिनो खरो अर्थ शुं छे ते गाथाओमां कहेवामां आव्यो छे.
३४ गाथा २७ मां कह्यु्रं के–सोनरूपाने एक पिंडरूपे कहेवानी–बोलवानी रीत छे. पण तेथी सोनुं अने रूपुं एक
थई जतुं नथी; तेम जीव अने शरीर आकाशना एक ज भागमां रह्यां छे– तेथी तेने एकक्षेत्रावगाह अपेक्षाए एक
कहेवामां आवे छे. पण खरेखर ते बन्ने भिन्न छे, तेथी एक पदार्थ कदी पण थई शकतां ज नथी. [एक क्षेत्रावगाह
अपेक्षा लक्षमां राखीने जे एकपणे कहेवानी रीत छे तेने शास्त्रनी परिभाषामां व्यवहारनय कहेवामां आवे छे; अने
वस्तु भिन्न छे तेथी एक कदी थई शके नहीं ते कथनने शास्त्रमां निश्चय (खरेखरो) नय कहेवामां आवे छे.]
३५ ज्ञानीओ स्तुतिओनो भाव बराबर समजे छे. तेथी तेओ तेनो अर्थ एवो करे छे के:– जो के स्तुतिना
शब्दो शरीरने उदेशीने छे–छतां तेओना लक्षमां तीर्थंकरदेव तथा आचार्यना आत्मानी शुद्धतानी स्तुति करवामां आवे
छे. आवो ते गाथाओनो अर्थ थाय छे अने आ स्तुति व्यवहार स्तुति छे एम कह्युं. ‘व्यवहार स्तुति छे’ एम
कहेवानो अर्थ ए छे के–केवळी भगवान अने आचार्य महाराज ते स्तुति करनार जीवथी पर छे तेथी परनी स्तुतिमां
राग आव्या विना रहेतो नथी; ते वडे शुभभाव थाय छे. पण ते धर्म नथी. (जुओ गाथा २८)
३६ ए विषयने स्पष्ट करवा माटे गाथा २९ मां कह्युं छे के–शरीरना गुणो द्वारा केवळीनी स्तुति ते व्यवहार
स्तुति छे–ते खरी (निश्चय) स्तुति नथी. निश्चय