Atmadharma magazine - Ank 019
(Year 2 - Vir Nirvana Samvat 2471, A.D. 1945)
(Devanagari transliteration).

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: ११० : आत्मधर्म : चैत्र २ : २००१
स्त्र श्र
[‘महान शास्त्र श्री जयधवला’ ए शीर्षक हेठळ बे विभाग अनुक्रमे अंक १७, १८ मां आपवामां
आव्या छे; तेमां श्री जयधवलाजीना ४४ पानां सुधीमांथी कुल ३३ कलमो आपवामां आवेल छे. तेमांथी कलम
नं. २०–२१–२२ तथा ३३ कलममां गंभीर आशय रहेला छे, ते विषय उपर पू. श्री सद्गुरुदेवे करेल स्पष्टता
अत्यंत जरूरी होई ते अहीं आपवामां आवे छे.
] संपादक
जीवनुं स्वरूप केवळज्ञान छे.
ते केवळज्ञान सर्व प्रकारना आवरणनो नाश थतां प्रगट थाय छे; तथा ते केवळज्ञान उपर जेटले अंशे
आवरण आवे ते अनुसार कर्मने मतिज्ञानावरण–श्रुतज्ञानावरण एम भेद पाडी नाम अपाय छे, तथा ते
वखते
[आवरण वखते] केवळज्ञाननो जेटलो अंश प्रगट रह्यो छे एटले के जेटला भाग उपर आवरण नथी ते
भागने क्षयोपशम अनुसार मतिज्ञान श्रुतज्ञान वगेरे नाम आपवामां आवे छे; केवळज्ञान कदी संपूर्णपणे
अवरातुं नथी, केमके ज्ञान जो संपूर्णपणे अवराय अर्थात् ज्ञाननो अभाव थाय तो जीवने जडत्वनो प्रसंग
आवे; पण तेम बनवुं अशक्य छे–एटले के केवळज्ञाननो अमुक भाग (अंश) तो जीवनी गमे ते अवस्था
वखते पण खुल्लो होय ज छे. (अहीं केवळज्ञान एटले केवळपर्याय नहि पण सामान्य ज्ञान–ए अर्थ छे.)
मुमुक्षुओ प्रत्ये सद्गुरुदेवनो प्रश्न:–“केवळज्ञान प्रत्यक्ष के परोक्ष?”
मुमुक्षुओनो उत्तर:– केवळज्ञाननो विषय प्रत्यक्ष छे.
सद्गुरुदेव:–केवळज्ञानना विषयनुं नथी पूछयुं पण मतिज्ञानमां केवळज्ञान प्रत्यक्ष के परोक्ष? एम पूछयुं
छे. श्री जयधवलामां आ बाबत आवी छे, सांभळो:–
मतिज्ञानमां केवलज्ञान प्रत्यक्ष छे. तेना न्यायो:–
(१) केवळज्ञान ते पूर्ण स्वरूप छे अर्थात अंशी (आखी वस्तु) छे, अने मतिज्ञान ते अधूरुं ज्ञान
एटले के केवळज्ञाननो अंश (भाग) छे; जेनो एक अंश प्रत्यक्ष छे ते अंशी पण प्रत्यक्ष ज छे. एक अंश प्रत्यक्ष
होय अने अंशी प्रत्यक्ष न होय तेम बने नहीं, आ रीते मतिज्ञान ते केवळनो अंश होवाथी “अंश प्रत्यक्ष छे
त्यां अंशी पण प्रत्यक्ष ज छे” ए न्याये मतिज्ञानमां केवळज्ञान पण प्रत्यक्ष ज छे.
(२) अंशी अने अंश अर्थात् वस्तु अने वस्तुनो भाग बन्ने जुदा नथी–पण अभेद छे, तेथी एकना
प्रत्यक्ष होवाथी बन्नेनुं प्रत्यक्ष होवापणुं सिध्ध थाय छे. ‘अंश’ नाम पण अंशीनी अपेक्षा राखीने छे.
(३) हवे ते द्रष्टांतथी सिद्ध करे छे:–जेमके एक थांभलो (स्थंभ) होय, तेने जोईने लोको कहे छे के
“आखो स्थंभ नजरे देखाय छे”–आम बोलवानो व्यवहार जगप्रसिध्ध छे; त्यां [स्थंभ जोवामां] तो ईन्द्रियनो
स्थुळ विषय छे, छता तेमां अंश जोवा छतां आखी वस्तु जोयानो स्वीकार करे छे, तो आ केवळज्ञान तो
अतीन्द्रिय छे अने तेनो अंश मतिज्ञान प्रत्यक्ष छे तो मतिज्ञानमां केवळज्ञान पण प्रत्यक्ष ज छे. [लोकोने पर
वस्तुमां व्यवहारनी बराबर खबर पडे पण पोतानी वस्तुमां भरोसो बेसतो नथी; पोताना सामर्थ्यनो स्वीकार
ज करता नथी तेथी तेनी द्रष्टि बहारमां पर उपर जाय छे.
]
आंखना विषयमां वस्तुनो एक भाग जणातां आखी वस्तु जोई एम कहे छे, तो स्व–अपेक्षा पोतानी
पर्यायनो जे अंश ऊघडयो ते ‘आखुं द्रव्य प्रत्यक्ष छे’ एम न कहे तो कोण कहे? समोसरणमां जाय अने त्यां
भगवानना शरीरनो बहारनो अमुक भाग ज नजरे देखाय छतां बहार आवीने कहे के “में तो भगवानना
प्रत्यक्ष दर्शन कर्यां” त्यां (आंखना विषयमां) प्रत्यक्ष माने तेम स्वमां निश्चयनो अंश ऊघडयो तेमां आखी
वस्तु प्रत्यक्ष ज छे; संपूर्ण ज्ञानने आश्रये जे ज्ञाननो अंश उघडयो ते ज्ञाननो अंश आखाने प्रत्यक्ष न करे तो
कोण करे?
एक प्रश्न:–जो केवळज्ञान प्रत्यक्ष छे तो पछी केवळज्ञाननो विषय पण प्रत्यक्ष होवो जोईएने?
उत्तर:–हा, केवळज्ञाननो विषय पण प्रत्यक्ष ज छे. त्रणकाळ त्रणलोकने जाणवानी जे व्याख्या छे ते तो
लोकोनी बाह्य द्रष्टि छे, अने तेओ बहारना माहात्म्यने जुए छे माटे कह्युं छे. पण अहीं केवळज्ञाननो विषय ए
रीते प्रगट छे के–जगतना छ ए द्रव्योना [छ द्रव्योमां पोते पण साथे आवी जाय छे] स्वरूपने जेम छे तेम
यथार्थ जाणे छे, कोई द्रव्यना स्वरूपथी अजाण नथी तेथी जगतना बधा द्रव्योनुं स्वरूप जाणे छे माटे
केवळज्ञाननो विषय पण प्रत्यक्ष छे.
[अहीं जे मतिज्ञानने केवळना अंश तरीके लेवामां आव्युं छे ते