: चैत्र २ : २००१ आत्मधर्म : १११ :
सम्यक्मतिज्ञान छे.] एक पुद्गल परमाणुनुं यथार्थ स्वरूप जाण्युं तो जगतमां जेटला पुद्गलो छे ते
बधानुं स्वरूप पण ते ज प्रमाणे जणाई गयुं छे; ते ज रीते बधा जीवोनुं स्वरूप सरखुं ज छे ए पण जणाई
गयुं छे–माटे केवळज्ञाननो विषय प्रत्यक्ष छे.
ता. २१–७–४४ ना व्याख्यानमांथी
मतिज्ञानमां केवळज्ञान प्रत्यक्ष छे. मतिज्ञानमां केवळज्ञानने प्रत्यक्ष जाण्या विना “ आ मतिज्ञान
केवळज्ञाननो अंश छे ” एम लाव्या क्यांथी? केवळज्ञानने जोया विना “ आ अंश केवळज्ञाननो छे ” एम
नक्की शी रीते कर्युं? केवळज्ञानने जाण्या विना ते नक्की थई शके नहीं, तेथी ज्यांं अंश–अवयव (मतिज्ञान)
प्रत्यक्ष छे त्यां अंशी–अवयवी [–केवळज्ञान] प्रत्यक्ष ज छे.
लोको पण वस्तुनो अंश जोवा छतां आखी वस्तुने प्रत्यक्ष जोई एम कहे छे. जेम कोई बंदर उपर मोटो
दरियो ऊछळतो जुए, पुनमनी भरतीनां मोजां उछळता जुए, त्यारे बीजो कोई तेने पूछे के भाई! केटलो
दरियो जोयो? त्यारे तरत ज कहे छे के में तो आखे आखो दरियो जोयो त्यारे पूछनार कहे के–दरियानां मोटा
माछलांं–मगरमच्छ वगेरे बधुं नजरे जोयुं? तो कहे के–“मने तो एवो विकल्प पण नहोतो उठयो, आखो ज
नजरे जोयो एमां शंका ज नहोती ऊठी, आखा अने अंश वच्चेनो भेद ज नथी.” एम अंश जोवा छतां पण
आखाने जोयुं एमां शंका करतो नथी. त्यां ए निःशंकता क्यांथी आवी? तेम चैतन्य आत्मा आखो अनंत
गुणोथी भरचक पड्यो छे, तेनो एक अंश प्रत्यक्ष जोयो त्यां पूर्ण वस्तुनी शंका ज नथी. परने जोयुं तेमां आखा
अने ऊणानो भेद ज पाडतो नथी तो स्व द्रव्यमां आखी वस्तुनो एक अंश ऊघडयो त्यां परिपूर्ण अने अंश
एवा भेद ज कोण जाणे छे! अखंड–परिपुर्ण ज छे तेमां शंका ज नथी ने! त्रणलोकनो नाथ चैतन्य गंज
आनंदनो सागर छुं, तेनी प्रतीत थई तेमां वळी अंश ऊघडयो के आखो तेना भेद ज क्यां छे? अवस्था द्वारा
एक ज सामान्यनुं लक्ष छे.
अहोहो! जयधवला! जयधवला गजब करी छे. ज्यां हाथमां आव्युं अने आ विषय नजरे पड्यो त्यां
थयुं के–अहाहा! ओछी वस्तु जोई (देखी) एवुं छे ज क्यां? पुर्णनो ज स्वीकार छे. बहारनी वस्तुमां पण अंश
जुए छतां आखानो स्वीकार करी ल्ये छे. एक लाख रूपियानी लोननो कागळियो हाथमां आवे, त्यां तो मात्र
एक कागळनो कटको ज प्रत्यक्ष जुए छतां कहे के “आ लोनमांथी लाख रूपिया मळशे, ज्यारे जोईए त्यारे आ
लोनना लाख रूपियानी सरकार ना न पाडे,” एम रूपिया लाव्या पहेलांं ज नक्की करे छे; तेम आत्मामां पण
अंश प्रत्यक्ष छे त्यां आखी वस्तु प्रत्यक्ष ज छे, तेमां ऊणा अधूरानुं लक्ष करतो नथी. अभेद द्रष्टिना ज्ञानना
प्रत्यक्षना जोरे निर्मळ दशा सहज थाय छे.
अहो! केवळीनां मुखनां रहस्यनो पोकार आ जयधवलामां कर्यो छे. केवळीनी ज वात मूकी छे. “हुं अने
तुं सरखा” बोल! आ वात बेसे छे? जो कहे ‘हा’–तो हाल्यो आव! ज्ञानना प्रत्यक्षना जोरे द्वैतपणुं छे–एटले
परीपूर्ण वस्तुने जाणे छे अने वर्तमान पर्यायने पण जाणे छे, छतां जे दर्शननुं समान्य जोर छे तेमांथी पोकार
उठे छे के “नहीं रे नहीं, भेद नहीं. अवस्थाना अंशमां आखी वस्तु ज आवी गई छे. आखी वस्तु प्रत्यक्ष न
होय तो ‘वस्तुनो अंश प्रत्यक्ष छे’ एम कहेवुं पण खोटुं ठरे छे, केमके वस्तु जोया विना ‘आ अंश वस्तुनो छे’
एम नककी शी रीते कर्युं? तेथी अंशमां आखी वस्तु प्रत्यक्ष छे. हा पाड अने हाल्यो आव! हा ज पाड.”
बंधाणी ज्यारे कसुंबो पीए त्यारे कोई “आव्यो, आव्यो” एम कहे तो ज तेने नशो चडे; तेम अहीं
स्वभावमांथी जोर चडे छे के “पूर्ण छुं पूर्ण छुं, परिपूर्ण ज छुं” तेनी हा पाडी तो पुर्णता ज प्रगटी जशे. अंतरथी
पुर्ण स्वभावनुं जोर चडे के हा परिपुर्ण ज छुं, मारी अवस्था ऊणी होई शके ज नहीं; एम जो हा पाड तो
हाल्यो आव सिद्धमां, अने ना पाड तो जा निगोदमां.
पोते ज्ञान स्वरूप ज छे, त्रिकाळ परिपुर्ण ज्ञान स्वरूपे ज छे; एकवार परिपुर्ण स्वरूपनो अंतरथी साचो
होंकारो आपे ते पुर्ण ज्ञानस्वरूप प्रगट थई ज जाय.
अहो! संतोए मार्ग सहेला करी दीधां छे. आत्मतत्त्वना साचा भान विना तुं शुं करीश भाई?
अनादिकाळमां आत्मतत्त्वना भान विना पुण्य पण अनंतवार करी चूक्यो, पण भाई! जेनाथी जन्म मरणना
अंत न आवे अने आत्मतत्त्वनी स्वाधीनता न खीले एने ते कांई आचरण कहेवाय? तेनाथी आत्माने शुं
लाभ? बस! जे भावे जन्म–मरण टळे ए ज लाव! ए ज लाव!