द्रव्य बीजा द्रव्यनुं कांई करे एम मानवुं ते द्रव्यना त्रिकाळी स्वरूपनी हिंसा छे तेना जेवुं मोटुं पाप जगतमां
कोई नथी. परद्रव्यनुं हुं करी दउं एम मानवुं ते ज महान हिंसा छे–ते ज महान पाप छे. हिंसा बहारमां पर
प्राणी मरे के दुःखी थाय तेमां नथी, पण हुं ते प्राणीने सुखी के दुःखी करी शकुं एवी मान्यता ते ज पोताना
ज्ञानस्वरूपनी हिंसा छे; तेमां मिथ्यात्वभावनुं अनंतुपाप छे. अने परनुं करी शकुं एवी ऊंधी मान्यता छोडीने,
“हुं आत्मा ज्ञान स्वरूप छुं, परद्रव्यनुं हुं कांई न करी शकुं, दरेक द्रव्यो स्वतंत्र छे, सौ पोत पोताना कर्ता छे”
एम मानवुं ते ज अहिंसा छे–अने ए ज प्रथम धर्म छे.
क्रिया करे छे’ एम तो देखातुं नथी, पण अज्ञानी मफतनो मानी ले छे; अने कहे छे के में नजरे जोयुं; पण नजरे
शुं जोयुं? नजरे तो जड वस्तुनी क्रिया तेनी मेळे थाय छे ते देखाय छे. पण ‘वछेरांनां इंडा’ नी जेम “आत्माए
कर्युं” एम ते माने छे. ते वछेरांना इंडानुं द्रष्टांत नीचे मुजब छे:– एक वखत एक काठी दरबार सारां घोडाना
वछेरां लेवां नीकळ्या, दरबार कदी बहार नीकळेल नहि, एटले तेने कांई खबर पडे नहि; ते एक गामथी बीजे
गाम वछेरांनी खरीद माटे जता हता त्यां वच्चे धूताराओ मळ्या, अने वात्चीतमां ते धूताराओए जाणी लीधुं
के आ दरबार तद्न बीन अनुभवी छे अने वछेरां लेवां नीकळ्यो छे. ते धूताराओए दरबारने छेतरवानो
निश्चय कर्यो. अने बे मोटां कोळां लईने एक झाड उपर टांगी दीधां ते झाड पासे झाडीमां ससलानां बे बच्चां
हतां. हवे ते धूताराओए दरबार साथे वातचीत करीने पोता पासे वछेरांना बे सुंदर इंडा छे–एमांथी सुंदर
वछेरां नीकळशे, एम कहीने दरबार साथे सोदो कर्यो अने बे वछेरांनी किंमतना हजार रूपीया लई लीधा. पछी
गुप्त रीते झाड उपर टांगेला बे कोळां नीचे पाड्या, कोळां अध्धरथी पडतां ज ते फाटया अने अवाज थयो, ते
अवाज सांभळीने तुरतज पासेनी झाडीमां रहेलां बे ससलानां बच्चां नासवा मांडया; त्यां धूताराओ ताळी
पाडीने कहेवा लाग्या के अरे आपा! आपा! पकडो, आ तमारा वछेरां भाग्या! जलदी जाव नहितर सुंदर
वछेरां नासी जशे. दरबार तो खरेखर तेने घोडानां वछेरां मानीने तेने पकडवा दोडया, पण ए तो क्यांय
झाडीमां संताई गया. पछी दरबारे घरे आवीने पोताना डायरामां वात करी, के शुं वछेरां, नानकडां अने सुंदर,
जेवा नीकळ्या के तरत ज दोडवा मांडया! त्यारे डायराए पूछयुं–आपा! शुं थयुं? त्यारे दरबारे ‘वछेराना इंडा’
खरीद कर्या संबंधी वात करी. डायराना माणसो कहे, आपा! तमे मूरख थया, कांई वछेरांना ते इंडा होय? पण
आपो कहे–में नजरे जोयांने! पण वछेरांना इंडा होय ज नहि पछी नजरे क्यांथी जोया? तमारी जोवानी भूल
छे. तेवी रीते अज्ञानी जीव कहे छे के “जीव परनुं करे एम नजरे देखाय छे ने? ” पण भाई! जीव परनुं करी
ज शकतो नथी तो तें नजरे शुं जोयुं? नजरे तो जडनी क्रिया देखाय छे, आत्माए ते कर्युं एम तो देखातुं नथी.
जुओ! आ हाथमां लाकडुं छे ते ऊंचु थयुं–हवे त्यां आत्माए शुं कर्युं? के प्रथम लाकडुं नीचे हतुं पछी ऊंचुं थयुं–
एम आत्माए जाण्युं छे, पण लाकडुं ऊंचु करी शकवा आत्मा समर्थ नथी. अज्ञानी जीव पण “लाकडुं ऊंचु थयुं”
एम जाणे छे, परंतु ते “में आ लाकडुं ऊंचु कर्युं” एम मानीने नजरे देखाय छे तेना करतां ऊंधुंं माने छे.
छे–महानपाप छे.
(२) एक आत्मा जडनुं कांई करी शके अथवा