Atmadharma magazine - Ank 020
(Year 2 - Vir Nirvana Samvat 2471, A.D. 1945)
(Devanagari transliteration).

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वैशाख : २००१ आत्मधर्म : १२५ :
मारी जीवाडी शके नहि, सुख दुःख आपी शके नहि,
एवी दरेक द्रव्य–गुण–पर्यायनी संपूर्ण स्वतंत्रता अनंत
ज्ञानीओए पोकारी पोकारीने कही छे.
(६) जिनमतमां तो एवी परिपाटी छे के
पहेलांं सम्यक्त्व होय पछी व्रत होय; हवे सम्यक्त्व तो
स्व–परनुं श्रद्धान थतां थाय छे; माटे पहेलांं
द्रव्यानुयोग अनुसार श्रद्धान करी सम्यग्द्रष्टि थवुं.
श्र महवर जन्मकल्यणक महत्सव
–सुवर्णपुरी–
चैत्र सुद: १३ २००१: बुधवार
(७) पहेलां गुणस्थाने जिज्ञासु जीवोने
शास्त्रनो अभ्यास, वांचन, मनन, ज्ञानीपुरुषोनो
धर्मोपदेश सांभळवो, निरंतर तेमना समागममां
रहेवुं, देवदर्शन, पुजा, भक्ति, दान वगेरे शुभभावो
होय छे. परंतु पहेलांं गुणस्थाने साचां व्रत, तप वगेरे
होतां नथी.
जिज्ञासुओए उपर प्रमाणे समजीने
सत्शास्त्रोनो अभ्यास करवो जरूरी छे.
रामजी माणेकचंद दोशी
–प्रमुख–
श्री जैन स्वाध्याय मंदिर ट्रस्ट
हे जीव! सर्वज्ञना धर्म सिवाय त्रण लोकमां कोई शरणभुत नथी माटे ते ज
धर्मने जाण, श्रद्धा कर अने आत्मस्वरूपनी आराधना कर
परम पूज्य सद्गुरुदेवना
प्रवचनमांथी चैत्र सुद ७
१८ – ४ – ४प
प्रद्युम्न कुमार ते श्री कृष्ण वासुदेवना पुत्र हता; समस्त संसार प्रत्ये वैराग्य थतां तेओ दीक्षा लईने
मुनि थाय छे, ए वखते दीक्षा माटे रजा मागतां माता पिता प्रत्ये अत्यंत विनय पुर्वक कहे छे के–
पिताजी! अमने रजा आपो! अमे हवे परम पवित्र भगवति जिनदीक्षा अंगीकार करीशुं; स्वरूपमां
रमणता साधी हवे अमारूं केवळज्ञान प्रगटावशुं. आ असार, क्षणभंगुर संसारमां अनंतकाळ गाळ्‌यो, अमने
हवे अमारा आत्मानुं करवा दो. शुद्ध स्वरूपनी रमणता प्रगटावी समस्त विभावोनो क्षय करी अमे आ ज भवे
जन्म–मरणनो अंत लावी मोक्ष दशा प्रगट करशुं. आ अनादि संसार विषे कोई शरणभूत थयुं नथी, अशरण
संसारने छोडी, अमे अमारा आत्मानुं शरण करीने शरीरनां खोखां उडावी देशुं–जे भावे शरीर मळ्‌यां ते
भावनो अभाव करीशुं. आ अशरण जगतमां तो एक पछी एक मरतां ज जाय छे, अमे तो हवे अमारा
अविनाशी आत्म स्वरूपनुं शरण करीने केवळज्ञान प्राप्त करशुं. शरणभूत ज्ञानमूर्ति भगवान आत्मा
आनंदस्वरूप छे. ते सिवाय आ शरीरादि तो शरणभूत नथी, परंतु पुण्य–पापनो कोई विकल्प पण शरणभूत
नथी. विकल्प तो बधा क्षणिक छे, ए क्षणिकना शरण अविनाशी भगवान आत्माने न होय. शरणभूत तो एक
मात्र जिनेन्द्रदेवे कहेलो आत्म स्वभाव छे. श्रीमदे कह्युं छे के–सर्वज्ञनो धर्म सुशर्ण जाणी आराध्य! आराध्य!
प्रभाव आणी अनाथ एकांत सनाथ थाशे एना विना कोय न बांह्य स्हाशे
(अशरण भावना)
हे जीव! सर्वज्ञना धर्म सिवाय त्रण जगतमां कोई शरणभूत नथी, माटे ते ज धर्मने जाण, श्रद्धा कर.
आत्मस्वरूपनी आराधना कर. सर्वज्ञ भगवाने कहेला धर्मने आराध. हजारो देवोना स्वामी ईन्द्र पण ते धर्मने
आराधे छे. ईन्द्रनो वैभव पण अशरण छे. मरण टाणे ईन्द्र पासे ८४००० देवो सेवा करतां ऊभा होय छतां
ईन्द्रने मरतां कोई बचावी शके नहि.
ईन्द्र पोते समकिती छे, आत्मानुं तेने भान छे के मारूं सुख परमां नथी, मने कोई शरणभूत नथी,
जिनधर्म–आत्मस्वभाव ए ज मारूं शरण छे. ए ईन्द्र पण जिनधर्मना आराधक छे. तेने तो स्वरूपनी पूर्णतानी
भावना छे, अमारे आ ईन्द्रपद जोईतुं नथी, ईन्द्रपदमां अमारा आत्मानी शांति नथी. अमे तो मनुष्य थई
भगवान पासे चारित्र अंगीकार करी केवळज्ञान साधशुं. ए ज अमारूं पद छे. –आम अनेक प्रकारे वैराग्य
लावीने प्रद्युम्नकुमार माता पितानी रजा लई, समस्त राजवैभव छोडी, मुनिदशा अंगीकार करीने परिपूर्ण
पुरुषार्थ द्वारा केवळज्ञान प्रगटावी तेज भवे अशरीरी सिद्ध थई गया छे.