Atmadharma magazine - Ank 020
(Year 2 - Vir Nirvana Samvat 2471, A.D. 1945)
(Devanagari transliteration).

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: १२६ : आत्मधर्म वैशाख : २००१
मृगापुत्रना वैराग्यनी वात पण आवे छे. मृगापुत्रने आत्मानुं भान छे, हजी नानी उमर छे, पण जाति
स्मरण ज्ञान थतां संसार प्रत्ये वैराग्य आवी जाय छे. पोते राजपुत्र छे, हीरा माणेकना पलंगमां सूनारा
मृगापुत्र आत्म स्वरूपनी साधना करवा माटे मुनिदशा अंगीकार करवानी रजा मागता माता पिता प्रत्ये कहे छे
के हे माता! हे जनेता! आ शरीर अशुचिमांथी उत्पन्न थयुं छे अने ते पोते पण अशुचिमय छे. माता! आ
शरीरमां के राजवैभवमां अमारूं सुख नथी. अमारूं सुख आत्मामां छे. हे माता! रजा दे, रजा दे! अमे हवे
अशरिरी सिद्ध परमात्मा थई जशुं. हवे बीजुं शरीर धारण करवाना नथी, नवो भव हवे करवाना नथी. अमे
पूर्णानंदी स्वरूपनी साधना करी परमात्मदशा प्रगट करशुं. माता! एक तने दुःख थशे, पण हवे बीजी माता
करवाना नथी. अमे हवे फरी जन्म धारण करवाना नथी. माता! आ जन्म–मरणमां क्यांय आत्मानुं सुख नथी,
आ मणीरतन के शरीरादि ए कोई अमारा नथी, अमारो आत्मा ए ज अमारुं शरण छे. आ अशरण संसारमां
हवे अमारे एक क्षण पण नथी रहेवुं. कोई विभाव भावमां अमारूं शरण नथी, अमे अमारा स्वभावनुं शरण
करशुं अने आ विभावोनो अंत करशुं. आ प्रमाणे स्वरूपना भानमां निःशंक थईने, राजवैभव वगेरे बधुं
छोडीने, नग्न दीगंबर मुनिदशा अंगीकार करी स्वरूप रमणता करी सिद्ध थई गया. जुओ! ज्ञानीओए
सत्स्वरूपमां शांति भाळी, तेनुं ज शरण कर्युं. आ शरीर तो रजकणोनुं बनेलुं जड छे, एना रजकणे रजकण
छुटा पडी जवाना छे तेमां आत्मानी शांति नथी. आ मनुष्यपणामां शीघ्र आत्मभान करवुं योग्य छे.

ब्राह्मणना बे पुत्रोनी वात आवे छे. तेओने जातिस्मरण छे, जैन धर्मी छे, आत्मानुं भान थयुं छे, तेओ
दीक्षा लई मुनि थाय छे. माता–पिताने कहे छे के–अमने रजा आपो, अमे हवे मुनि थवा मांगीए छीए. हे
माता! हे जनेता! जेनो अजीव स्वभाव छे एवा आ शरीर उपरना रागने छोडीने आज क्षणे चिदानंद स्वरूप
आत्मधर्मने अने स्वरूपना चारित्रने अंगीकार करशुं. हे जनेता! हवे अमे चिदानंद स्वरूपी आत्मानुं शरण
करीए छीए अने आ अजीव शरीर धारण करवानां पच्चखाण करीए छीए. हे माता, हवे अमे फरीने
अवतरवानां नथी. हवे संसारनो अंत लावी स्वरूपने पामी जशुं. आ संसार विषे रखडतां जगतमां अणपामेलुं
एवुं आ आत्मा सिवाय अमारे बीजुं कांई रह्युं नथी. स्वर्गना वैभव अने नरकनां दुःख अनंतवार भोगव्या,
हवे अमारे आ अजीव शरीरने फरी कदि पण धारण नथी करवुं. हे माता! नरकमां हजारो वर्ष भूख–तरस
सहन कर्यां, शरीर चीराणां, ढोरमां पण दुःखी अनंतवार थयो, अने देवनी मणी–रतननी सामग्री अनंतवार
मळी, पण आत्मसाधना पूर्वे कदी करी नथी, हवे तो अमे आत्मसाधना पूरी ज करशुं. आ प्रमाणे बधुं छोडीने
आत्मस्वरूपनी रमणता करवा चाली नीकळे छे.
गमे तेवा तूच्छ विषयमां प्रवेश छतां उज्जवल आत्माओनो स्वत: वेग वैराग्यमां झंपलावुं ए छे.
ज्ञानीओने वैराग्यनां निमित्त मळतां संसारना विकल्प तोडीने पोताना स्वरूपमां झंपलावे छे–अने केवळज्ञान
प्रगटावे छे. क्षणभंगुर मरण जोईने ज्ञानीओने समस्त संसारथी वैराग्य आवे छे, आ संसार तो क्षणिक छे, हुं तो
अविनाशी आत्मा छुं, मारे ‘आ भव वण भव छे नहि’ एम अंतरमां पुरुषार्थ उपाडे छे. आ देह तो संयोगी चीज
छे, ए तो वियोग थवा योग्य ज हतो तेथी ते छूटो पडे ज–एमां नवाई नथी; माटे आ देहनो संयोग क्षणिक छे
एम जाणीने ते तरफना रागने टाळीने, चिदानंद वीतराग स्वरूप आत्मानी ओळखाण पूर्वक तेनां शरण करीने
स्वभावमां ठरवुं–ए ज संसारथी मुक्त थवानो उपाय छे; आत्मस्वरूप सिवाय आ जगतमां बीजुं कोई शरणभूत
नथी, माटे आत्मस्वरूपनी ओळखाण करी शीघ्र आत्मकल्याण करवुं ए ज कर्तव्य छे. × × ×
मेट्रीकना विद्यार्थीओ माटे उत्तम तक
मेट्रीक सुधी पहोचेला जैन भाईओने एक वर्ष सुधी जैन शास्त्रोनुं शिक्षण आपवामां आवशे. अने त्यार पछी
पास थतां पहेलांं पांच विद्यार्थीओने जैन पाठशाळा चलाववा हरकोई गामे एक वर्ष माटे मोकलवामां आवशे, अने
दर मासे रूा. ३०–पगार तथा मोंघवारी भथ्थुं रूा. २०–मळी कुल रूा. ५०–आपवामां आवशे.
अभ्यास दरम्यान रहेवा–जमवानी तथा पुस्तकोनी सगवडता ट्रस्ट तरफथी वगर लवाजमे करी आपवामां
आवशे. उमेदवारोए नीचेना सरनामे अरजीओ मोकलवी.
श्री जैन स्वाध्याय मंदिर ट्रस्ट–सोनगढ– [काठियावाड]