Atmadharma magazine - Ank 020
(Year 2 - Vir Nirvana Samvat 2471, A.D. 1945)
(Devanagari transliteration).

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वैशाख : २००१ आत्मधर्म : ११५ :
प्रात: स्मरणीय
विदेहवासी
उज्जवल उजमबा!
आजे आपने अमो
अत्यंत भावपूर्वक वंदीए छीए.
आजनो दिवस अमारा माटे
अनुपमेय छे, अवर्णनिय छे,
अद्वितिय छे.
महाउपकारी
महाभाग्यशाळी
ओ माता!
आजे ए पवित्रदिनने
पूरा पंचावन वर्ष थया के जे
कल्याण दिने आपनी कुखे परम
पुज्य श्री कानजी स्वामीनो
जन्म थयो.
जगतवंदनीय
जगत पूज्यनी
ओ! जनेता!
धर्मोद्धारक, धर्मप्रभावक,
धर्मना नायक परम पुरुषार्थी परम
प्रतिभाधारी, परम–आत्मा श्री
कहान प्रभु
ने जन्म आपी आप
धन्य धन्य जननीनुं
बिरुद पाम्या छो.
आजना सुप्रभाते
आबालवृद्ध सौ आपनुं स्मरण
करीए छीए, नमन करीए छीए,
वंदन करीए छीए.
शाश्वत सुखनो मार्ग दर्शावतुं
मासिक
वर्ष २ : अंक: ८
वैशाख : २००१
आत्मधर्म
श्री सत पुरुषने चरणे. सर्वांग अर्पणता
अनंतयुग वही गया, अनंत ज्ञानी थई गया
छतां
अज्ञानी जीवो तो एवा ने एवा ज रह्या.
हवे, ओ! भगवान आत्मा!
साचुं समजवानो पुरुषार्थ कर! पुरुषार्थ कर!
सत्पुरुषना कोमळ हृदयमां रहेला आ भावोनुं आबेहूब स्वरूप
आप अहर्निंश दर्शावी रह्या छो अने उत्कृष्ट करुणाथी झरती अमृतवाणी
द्वारा अनंतकाळथी पोषातुं आवतुं अज्ञान टाळी, स्वभावमां भरपूर
भरेलुं वास्तविक सुख–शाश्वतुं सुख–केम प्रगट करी शकाय ए स्पष्ट
अत्यंत स्पष्ट रीते समजावी रह्या छो एथी:–
परमोपकारी ओ! परमात्मा!
अमे आपना चरणे आवीए छीए, वंदीए छीए, पूजीए छीए.
अनंत अनंतकाळथी भवभ्रमणमां भटकतां, भटकतां कोई महत्
पुण्ये आ नरदेह पामी आपनुं दर्शन पाम्या छीए अने आपना श्रीमुखेथी
निरंतर वहेती श्रुत–गंगारूप वीतरागवाणीनुं रहस्य समजवा भाग्यशाळी
बन्या छीए. भगवंत! आपे अमारुं भवभ्रमण टाळ्‌युं छे अने परम
पवित्र परमात्माए प्रगट करेली पूर्ण परमात्म–दशानो पंथ पमाडयो छे.
प्रभु! आपने शुं कहीए! अम भव्य जनोनां आप देव छो, गुरु अने
शास्त्र पण आप ज छो.
आजना आ महा मांगलिक दिने आपना चरण कमळमां सर्वांग
अर्पणता करीए छीए, आपनुं कौशल्य ईच्छीए छीए अने आपनी
कंईए अशातना थई होय, अविनय थयो होय तेनी लळी लळी क्षमा
याचीए छीए..
सनातन जैन धर्मनुं यथार्थ स्वरूप समजावनार ओ सत्पुरुष
अपन जय ह! जय ह! जय ह! !
न धर्मो धार्मिकैर्विना
परम पू. सद्गुरुदेवश्रीना व्याख्यानमांथी १२ – ४ – ४५
धर्मी विना धर्म होतो नथी
धर्म धर्मात्माओ विना होतो नथी, जेने धर्मनी रुचि होय तेने
धर्मात्मा प्रत्ये रुचि होय ज. धर्मी जीवो प्रत्ये जेने रुचि नथी तेने धर्मनी
ज रुचि नथी. जेने धर्मात्मा प्रत्ये रुचि अने प्रेम नथी तेने धर्मनी रुचि
अने प्रेम नथी, अने धर्मनी रुचि नथी तेने धर्मी एवा पोताना आत्मानी
ज रुचि नथी. धर्मीनी रुचि न होय अने धर्मनी रुचि होय एम बने ज
नहीं. केमके धर्म तो स्वभाव छे ते धर्मी वगर होतो नथी. धर्म प्रत्ये जेने
रुचि होय तेने कोई धर्मात्मा उपर क्रोध–अरूचि, अप्रेम होय ज नहि. जेने
धर्मात्मानो प्रेम नथी तेने धर्मनो प्रेम नथी, अने जेने धर्मनो प्रेम नथी ते
मिथ्याद्रष्टि छे. जे धर्मात्मानो तिरस्कार करे छे ते धर्मनो ज तिरस्कार करे
छे, केमके धर्म अने धर्मी जुदा नथी.