Atmadharma magazine - Ank 020
(Year 2 - Vir Nirvana Samvat 2471, A.D. 1945)
(Devanagari transliteration).

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: ११६ : आत्मधर्म वैशाख : २००१
श्री रत्नकरंड श्रावकाचार्यनी २६ मी गाथामां श्री
समन्तभद्राचार्ये कह्युं छे के–“न धर्मो धार्मिर्कैर्विना” एमां बे पडखेथी
वात करी, एक तो जेने पोताना निर्मळ शुद्ध स्वरूपनी अरुचि छे ते
मिथ्याद्रष्टि छे; अने बीजुं–जेने धर्मना स्थानो प्रत्ये, धर्मी जीवो प्रत्ये
अरुचि छे ते पण मिथ्याद्रष्टि छे. तेनाथी विरुद्ध बे पडखां लईए तो
जेने धर्मनी रुचि छे तेने आत्मानी रुचि छे, अने बीजामां ज्यां ज्यां
धर्म जुए छे त्यां त्यां तेने प्रमोद आवे छे. जेने धर्मनी रुचि थई छे
तेने धर्म स्वभावी आत्मानी रुचि होय ज अने धर्मात्माओनी रुचि
पण होय ज. अंतरमां जेने धर्मी जीवो प्रत्ये कांईपण अरुचि थई तेने
धर्मनी अरुचि छे. आत्मानी तेने रुचि नथी.
जेने आत्मानो धर्म रुच्यो छे तेने ज्यां ज्यां धर्म जुए त्यां
त्यां प्रमोद अने आदरभाव आव्या वगर रहे नहि. धर्म स्वरूपनुं भान
थया पछी हजी पोते वीतराग थयो नथी एटले पोताने पोताना धर्मनी
पूर्णतानी भावनानो विकल्प ऊठे छे, अने विकल्प परनिमित्त मांगे ज,
एटले पोताना धर्मनी प्रभावनानो विकल्प उठतां ज्यां ज्यां धर्मी
जीवोने जुए छे त्यां त्यां तेने रुचि, प्रमोद अने उत्साह आवे ज छे;
खरेखर तो तेने पोताना अंतरंग धर्मनी पुर्णतानी रुचि छे. धर्मनायक
तीर्थंकर देवाधिदेव अने मुनि–धर्मात्माओ, सद्गुरु, सत्शास्त्र, समकिती
ज्ञानीओ ए बधा धर्मात्माओ धर्मनां स्थानो छे, तेमना प्रत्ये
धर्मात्माने आदर–प्रमोदभाव ऊछळ्‌या वगर रहेतो नथी; जेने
धर्मात्माओ प्रत्ये अरुचि छे तेने पोताना धर्मनी अरुचि छे, पोताना
आत्मा उपर क्रोध छे.
जेनो उपयोग धर्मी जीवोने हीणा बतावीने पोतानी मोटाई
लेवाना भावरूप थयो छे, धर्मीनो विरोध करीने जे मोटाई ईच्छे छे ते
पोताना आत्म कल्याणनो वेरी छे–मिथ्याद्रष्टि छे. धर्म एटले स्वभाव
अने तेनो धारण करनार धर्मी एटले आत्मा. जेने धर्मात्मानी अरुचि
तेने धर्मनी अरुचि, धर्मनी अरुचि तेने आत्मानी अरुचि अने
आत्मानी अरुचि पुर्वकना जे क्रोध, मान, माया, लोभ होय ते
अनंतानुबंधी क्रोध, अनंतानुबंधी मान, अनंतानुबंधी माया अने
अनंतानुबंधी लोभ होय.... एटले जे धर्मात्मानो अनादर करे छे ते
अनंतानुबंधी रागद्वेषवाळो छे अने तेनुं फळ अनंतसंसार छे.
जेने धर्मनी रुचि छे तेने परिपुर्ण स्वभावनी रुचि छे. तेने
बीजा धर्मात्माओ प्रत्ये अणगमो के अदेखाई न होय. पोता पहेलांं
बीजो केवळज्ञान पामीने सिद्ध थई जाय तो तेने खेद न थाय पण
अंतरथी प्रमोद जागे, के अहा! धन्य छे आ धर्मात्माने! जे मारे
जोईए छे ते तेमणे प्रगट कर्युं छे, मने तेनी रुचि छे, आदर छे,
भावना छे. एम बीजा जीवोना धर्मनी वृद्धि जोईने धर्मात्मा पोताना
धर्मनी पुर्णतानी भावना करे छे एटले तेने बीजा धर्मात्माओने जोईने
हरख आवे छे, उल्लास आवे छे. अने ए रीते धर्मनो आदरभाव
होवाथी ते पोताना धर्मनी वृद्धि करीने पुर्ण धर्म प्रगट करी सिद्ध थई
जवाना..........!
आ समयसारजीनुं अध्ययन,
मनन, स्वाध्याय जीवनना छेल्ला
श्वासोश्वास सुधी करवुं योग्य छे.
(४–८–४४)
समयसारमां पदे पदे पूर्ण
वस्तु बतावी छे; आचार्यने विकल्प
ऊठ्यो छे ते पूर्णनो, वाणीमां पूरुं
छे, शब्दमां पूरुं आव्युं छे,
आचार्यनी भावना पण पूर्णनी ज
छे, बधी रीते समयसारमां पूर्णता छे
अने.... वस्तु पण पूर्ण ज छे ने!
स्वभाव परिपूर्ण छे, पर्याय पण
परिपूर्णताना लक्षे ज कार्य करे छे
माटे परिपूर्ण छे, विकल्पमां पण
परिपूर्ण गुण आवे छे अने
आचार्यदेवना कथनमां पण परिपूर्ण
आव्युं छे. आ तो साक्षात् तीर्थंकरनी
वाणीमांथी आवेलुं छे तेथी बधी
रीते पुर्ण ज छे.
(८–८–४४)
आ तो दैवी वाणी छे,
भगवानना श्रीमुखेथी नीकळेली
अने संतो–मुनिओए झीलेली दैवी
वाणी छे, अपूर्व छे. अहो! आ
समयसार तो भरतक्षेत्रना भगवान
छे. आ समयसार तो दैवी वाणी
अने दैवी शास्त्र छे. भरतक्षेत्रनी
अंदर अत्यारे आवुं शास्त्र बीजुं
कोई नथी. आ तो अद्भुत दैवी
शास्त्र छे. शब्दो न समजशो, आ तो
दैवी मंत्रो छे.
(१०–८–४४)
अहो! समयसार तो दूझणी
भेंस छे, कामधेनु गाय छे. अहोहो!
शुं कहेवुं चैतन्यनुं निधान!! ! जेनी
पासे मोटा चक्रवर्तीनुं निधान पण
सडेलां तरणां समान छे एवुं परिपूर्ण
चैतन्य निधान एकेक आत्मा पासे
अनादि अनंत पड्युं छे.
(१५–८–४४)
अहो! समयसारनी रचना!
कोई अलौकिक रीते आ महान शास्त्र