Atmadharma magazine - Ank 020
(Year 2 - Vir Nirvana Samvat 2471, A.D. 1945)
(Devanagari transliteration).

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वैशाख : २००१ आत्मधर्म : ११७ :
महान उपकारी परमागम
श्र समयसर.!
रचायुं छे. जेम भगवानना श्रीमुखेथी नीकळता एकाक्षरी दिव्य ध्वनिमां पूरेपूरुं कथन आवे छे तेम आ
शास्त्रमां आचार्य श्रीकुंदकुंद भगवाने एकेक गाथामां–एकेक पदमां पूरेपूरुं आत्मानुं स्वरूप कह्युं छे. भगवान
एक अक्षरमां पूरुं कहे छे, आचार्यदेव एक पदमां पूरुं कहे छे.
(८–८–४४)
त्रीजा कळशमां टीकाकार आचार्यदेव स्वभाव तरफना जोरथी कहे छे के आ समयसारनी व्याख्याना
फळमां मारी परिपूर्ण निर्मळ दशा प्रगट थाओ! परिपूर्ण ज लाव. परिपूर्णना ज भणकार आचार्यने थई रह्या
छे. कोई कहे के वर्तमानमां आ टीका करवानो विकल्प वर्ते छे छतां परिपूर्णनी मागणी केम करे छे? तो तेने कहे
छे के पहेलांं तो परिपूर्ण ज लाव! विकल्प वर्ते छे तेनी वात पछी! आमां आचार्यदेव अपुर्ण दशाना भेदनो
नकार करे छे. विकल्प छे पण तेनुं लक्ष ज कोने छे? परिपूर्ण स्वभावना जोरमां विकल्प भाळे छे ज कोण? एम
पूर्ण स्वभावना अप्रतिहत भावना जोरे आचार्य उपड्या छे. समयसार जेवा महान शास्त्रनी टीका करतां
आचार्यदेवनुं हृदय हर्षथी ऊछळी रह्युं छे तेथी कहे छे के–स्वरूपे तो त्रिकाळ शुद्ध छुं अने केवळज्ञान न प्रगटे
त्यांसुधी अवस्था निरंतर–दरेक समये मलिन छे; पण हवे... हवे? हवे आ समयसारनी टीका करतां मारी
अवस्था पण वीतराग–परम विशुद्ध थई जशे, एवी श्रद्धाना जोर पूर्वक आचार्यदेवे टीका उपाडी छे.
(९–८–४४ गाथा–१)
अमृतचंद्राचार्ये पहेली गाथानी संस्कृत टीकामां प्रथम ज शब्द ‘अथ’ मूक्यो छे, तेनो अर्थ ‘हवे’ थाय
छे; ते मंगळिक छे. ‘हवे’ एटले के अनादिथी आत्माने ओळख्या वगर जे कर्युं ते छोडीने हवे आ साधक दशा
शरू थाय छे. अनादिनी जे परनी–पुण्य–पापनी मांडी छे तेने बदले हवे अमे स्वभावनी वात करीए छीए.
अनादिथी परनी मांडी हती ते बस थई, हवे ते छोडी दे! चिदानंद धु्रव स्वभावी छुं ए हवे लाव! अनादिथी
आत्माने परनो ओशीयाळो मानी बेठो छो पण हवे आत्माना सामर्थ्यने संभाळ!
(१०–८–४४)
समयसार शरू करतां मूळ गाथामां ज आचार्यदेव कहे छे के हुं सिद्ध छुं, तुं सिद्ध छो तेनी पहेलांं हा पाड
पछी अमे तने समयसार संभळावीए. जे साक्षात् सिद्ध थई गया छे ते, जे वर्तमान साधक
छे ते, तथा जे
सिद्धपणानी हा पाडीने सांभळवा
आव्यो छे ते ए त्रणेने सामान्य पणे लईने आचार्यदेवे सिद्धपणानी
स्थापना करी छे; तेमां उपादान–निमित्तनो मेळ राख्यो छे.
(१०–८–४४ रात्रिचर्चा)
समयसारनी पहेली गाथामां आचार्यदेव कहे छे के अमे आ मोक्षना मांडवा नांख्या छे तेमां, एक सिद्धने
नहि पण अनंता सिद्धोने उतारीए छीए. लौकिकमां पण छोकराना लग्न वखते साथे मोटा शेठियाने लई जाय छे
के जेथी सामापक्षवाळो खूटे तोपण कन्या पाछी न फरे! एम अहीं आचार्यदेवे अनंत सिद्धोने पहेलांं आत्माना
आंगणे स्थाप्या छे.
लगन एटले जोडाण करवुं. अमारा स्वरूपनी भक्ति करतां, अंदर लगनी (एकाग्रता) करतां अनंत
सिद्धोने उतार्या छे तेथी आ मांडवे मुक्तिरूपी कन्या पाछी नहि फरे. (‘अनंत सिद्धोने उतार्या छे’ एटले कांई
सिद्ध भगवंतो उपरथी अहीं आवता नथी परंतु आचार्यदेवने सिद्धनी वस्तीमां भळी जवानी–सिद्ध थवानी
भावनानुं जोर छे ए बताव्युं छे. सिद्ध भगवंतो अहीं आवता नथी पण आचार्य पोते सिद्धदशामां जवानी
भावना करे छे.) मारा आंगणे–मारा आत्मामां अनंता सिद्धोने–सर्व सिद्धोने स्थापुं छुं, हवे आ मोक्षनो मेळो
भेगो थयो अने मुक्तिरूपी परिणति पाछी फरे एम बने नहि, मारी सिद्ध दशा पाछी न ज फरे. आ रीते
आचार्यदेवे समयसारमां अप्रतिहत साधकभाव वर्णव्यो छे. एटला जोरथी उपड्या छे के सिद्ध दशा लीधे ज
छूटको! मुक्तिना मांडवे वच्चे कर्म खूटे तो कहे, हाल! हाल! अनंता सिद्धोने मारा–तमारा (सांभळनारना)
आत्मामां स्थाप्या छे, हवे तेमां राग समाय तेम नथी; ए राग तो तूटये ज छूटको. जेम दसशेर समाय तेवडा
तपेलामां दसशेर सोनानो पिंडलो समावी देतां अंदर जरापण पाणी रही शकतुं नथी तेम अमारा आत्मामां
अनंता सिद्धोने समाडया हवे तेमां जरापण