Atmadharma magazine - Ank 020
(Year 2 - Vir Nirvana Samvat 2471, A.D. 1945)
(Devanagari transliteration).

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: ११८ : आत्मधर्म वैशाख : २००१
राग समाय तेम नथी. अहो! आचार्यदेवे गजब मंगळिक कर्युं छे. पात्र थईने जिज्ञासाथी सांभळे तो चैतन्य
निधानना कबाट खूली जाय एवी अपुर्व कथनी छे.
आचार्यदेव कहे छे–मारो मुक्ति–दशा साथे लग्ननो जलसो चाले छे तेमां हुं अनंता सिद्धोने आमंत्रुं छुं,
अनंता सिद्धोने मारा आत्मामां स्थापुं छुं, अनंता सिद्धोने मारी एक पर्यायमां समावी दऊं छुं एटले के मारी
एक पुरी पर्यायमां अनंता सिद्धोने जाणवानुं सामर्थ्य छे तेने वर्तमान जाणुं छुं–ए पर्यायमां, सिद्धदशा प्रगट्या
पहेलांं, सिद्ध स्वरूपनी प्रतीत करवानी ताकात छे. हुं सिद्ध अने तुं पण सिद्ध... हा ज पाडी दे. श्रीकुंदकुंद
भगवंतना प्रथम पद ‘वंदित्तु सव्व सिद्धे’ एमांथी आचार्यदेवे आ गजब टीका काढी छे.
जगत आ जड शरीर साथे लगन करे छे, समयसारमां आचार्यदेवे आत्मानी शुद्ध परिणति साथे लगन
मांडया छे. शरीर तो मडदुं छे, मडदां साथे शणगार! मडदां साथे लगन! वाह!! चैतन्य निधान अंदर पड्या छे
तेने भूलीने आ जड शरीर उपर–मडदां उपर मोही पड्यो छो! अहो! आवो चैतन्यमूर्ति भगवान आत्मा
अंदर पड्यो छे तेने मूकीने आ शरीरनुं शुं थशे तेनी चिंता करे छे, पण भाई! अंदर आनंदकंद अनंत गुणनां
निधान लईने तुं पड्यो छो तेनी संभाळ करने! माथानी बाबरीनी केवी संभाळ करे छे? ? ? ए बाबरीमां
मोही पड्यो, पण भाई! ए बाबरी तारी बळी जवानी छे! चैतन्य आनंद कंद पड्यो छे ते शाश्वत धु्रव
अविनाशी वस्तु छे, प... ण... तेना भान वगर पर फंदमां आनंदकंद मूंझाई रह्यो छे!
(११–८–४४)
वंदित्तु सव्व सिद्धे’ तेमां सर्व सिद्ध कहेवामां विशाळता बतावी छे के अनंता सिद्धने तारी एक
अवस्थामां समाडवानी (एक समयमां जाणवानी) ताकातवाळो तुं छो. तारा आत्मामां अनंता सिद्धने स्थाप्या
ने हवे तारे स्वरूपनी बहार परभावमां जवुं केम पालवे? आचार्यदेव समयसारनी महा मंगळ शरूआत करतां
एम कहेवा मागे छे के हवे हुं अनंता सिद्धनी वस्तीमां भळवा मागुं छुं अर्थात् हुं सिद्ध थवा मागुं छुं. सिद्ध थई
गया ते, हुं–संयमी मुनि अने समयसार सांभळवा आवनार जिज्ञासु (एटले के उत्कृष्ट, मध्यम अने जघन्य)
ए त्रणेमां आचार्यदेवे भेद पाडयो नथी.
(२७–८–४४)
समयसार सांभळवाने लायक शिष्य केवो छे? संसारथी भयभीत छे, मोक्षनो कामी छे, विनयथी सद्गुरुने
अर्पायेल अने शुद्ध आत्मानुं स्वरूप जाणवनी भावनावाळो छे. आचार्यदेवे एटलुं तो स्वीकारी ज लीधुं छे के–आ
परम समयसार सांभळवा आवनार भव्य जीव (१) साचां देव–गुरु–शास्त्रने बाह्य लक्षणो वडे यथार्थ ओळखे छे
(२) कुदेवादिने मानतो नथी. (३) संसार तरफना अशुभ राग करतां साचां देव–गुरु–धर्म–शास्त्र प्रत्येनो
शुभराग वधारे छे (४) शिष्य तद्न लायक छे, हा ज पाडे एवो छे एटले के जे कहेवानो आशय छे ते बराबर
पकडी ल्ये एवो छे. आवी जेनामां लायकात छे एवा शिष्यने आचार्यदेव आ समयसारमां उपदेश करे छे.
गुजराती अनुवादक भाई श्री हिंमतलाल जेठालाल शाह आ समयसारजीना उपोद्घातमां
लखे छे के–
श्री समयसार अलौकिक शास्त्र छे. आचार्य भगवाने आ जगतना जीवो पर परम करुणा करीने आ
शास्त्र रच्युं छे. तेमां मोक्षमार्गनुं यथार्थ स्वरूप छे तेम कहेवामां आव्युं छे. अनंतकाळथी परिभ्रमण करता
जीवोने जे कांई समजवुं बाकी रही गयुं छे ते आ परमागममां समजाव्युं छे. परम कृपाळु आचार्य भगवान आ
शास्त्र शरू करतां पोते ज कहे छे के:– ‘कामभोगबंधनी कथा बधाए सांभळी छे, परिचय कर्यो छे, अनुभवी छे
पण परथी जुदा एकत्वनी प्राप्ति ज केवळ दुर्लभ छे. ते एकत्वनी–परथी भिन्न आत्मानी–वात हुं आ शास्त्रमां
समस्त निज विभवथी (आगम, युक्ति, परंपरा अने अनुभवथी) कहीश.’ आ प्रतिज्ञा प्रमाणे आचार्यदेव आ
शास्त्रमां आत्मानुं एकत्व–पर द्रव्यथी अने परभावोथी भिन्नता–समजावे छे. × × × × × ×... ए प्रश्न थाय छे
के आवुं सम्यग्दर्शन कई रीते प्राप्त करी शकाय अर्थात् राग ने आत्मानी भिन्नता कई रीते अनुभवांशे
समजाय? आचार्य भगवान उत्तर आपे छे के, प्रज्ञारूपी छीणीथी छेदतां ते बन्ने जुदां पडी जाय छे, अर्थात्
ज्ञानथी ज–वस्तुना यथार्थ स्वरूपनी ओळखाणथी ज–, अनादिकाळथी राग–द्वेष साथे एकाकाररूपे परिणमतो
आत्मा भिन्नपणे परिणमवा लागे छे; आ सिवाय बीजो कोई उपाय नथी. माटे दरेक जीवे वस्तुना यथार्थ