Atmadharma magazine - Ank 021
(Year 2 - Vir Nirvana Samvat 2471, A.D. 1945)
(Devanagari transliteration).

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: : : पहेलां नक्की कर के तारे करवुं छे शुं? : : :
आत्महित के कजीया!
१– ‘ऊंहुं’ तारुं क्यांथी
उपड्युं ते जो... अर्थात् ‘ज्ञान स्वरूप
आत्मानो नकार कया ज्ञानमांथी
उपड्यो ते तपास कर. जे ज्ञान,
ज्ञानस्वरूप आत्मानो नकार करे छे
ते ज्ञान पोते ज ज्ञानस्वरूपी आत्मा
छे... माटे तुं तारा ज्ञानस्वरूपनी हा
पाड अने ‘ऊंहुं’ तारुं छोडी दे...
[कलश ३४]
२–ज्ञायक स्वरूपनो साचो
निर्णय थई गयो के–पुण्य–पाप मारूं
स्वरूप नथी, हुं तो ज्ञायक छुं, आ
निर्णय थतां पुरुषार्थ सम्यक्रूपे
परिणमी जाय छे अने पुरुषार्थ द्वारा
क्रमेक्रमे ज्ञायक स्वरूपनी द्रढता थतां
पुण्य–पापनो अभाव थई जाय छे,
अने ज्ञायकस्वरूपनी पूर्णता प्रगटी
जाय छे... [कलश–३४]
तीव्र राग के मंदराग ए कोई,
आत्मानो स्वभाव नथी; आत्मानो
स्वभाव तो तीव्रराग के मंदराग
बन्नेथी पार वीतराग स्वरूप ज्ञायक छे.
३–नजीक के दूर रहेल परवस्तु
के परभावो मात्र तारे ज्ञान करवा माटे
छे. पुण्य–पापना भाव पण क्षण पुरता
संयोगरूपे छे, तेनो पण तुं जाणनार ज
छो; अने तारा ज्ञायक स्वरूपनो ज तुं
भोगवनार छो, क्षणिक पुण्य–पाप थाय
तेने तारा ज्ञायकस्वभाव वडे जाणी
लेजे अने तारा ज्ञायक स्वरूपमां द्रढ
रहेजे. [कलश–३४]
४–राग–द्वेष क्षणिक छे,
आत्माना त्रिकाळी स्वरूपमां ते नथी,
रागद्वेषथी तारूं त्रिकाळी स्वरूप
दबाई जतुं नथी माटे राग–द्वेष थाय
छतां ते वखते पण तारा ज्ञायक
स्वरूपमां शंका लावीश नहि. राग–
द्वेषने पण स्वरूपना जोरे जाणी लेजे.
[गाथा–४प]
प–एकलुं आत्मद्रव्य संसारनुं
कारण छे ज नहि; आत्मद्रव्यमां
एकपण भव के भवनो भाव
नथी–एवी भेदज्ञान शक्तिनो
विकास ते ज मुक्तिनुं कारण छे.
जेना ज्ञानमां आत्मानो स्वीकार
थयो तेने भवनी अने संसारनी
शंका ऊडी ज गई. त्रिकाळी
स्वभावनी द्रष्टि कर तो भवनो
अंत आवे. [गाथा–७२]
६–पहेलांं नक्की कर के तारे
आत्महित करवुं छे के कजीया ज
करवा छे? जो तारे कजीया करवा
होय तो अहीं ते वात नथी. अने
जो तारे आत्महित करवुं होय तो
तारी बधी पूर्वनी मान्यता छोडीने
ज्ञानीओ कहे छे ते रीते तारा
आत्मस्वरूपने मानीने तेमांज
निश्चळ था अने तेनी ज निःशंक
श्रद्धा कर. आम करवाथी ज तारुं
आत्महित थशे अने अल्प काळमां
ज तारी मुक्ति थशे.
[कलश–३४]
७–शुद्ध ज्ञायक स्वरूपनी
रमणतारूप अखंड चारित्र
जवालानी होळीमां हिंसा के दया–
भक्तिना समस्त विभावभावरूपी
लाकडां सळगी जवानां छे. माटे ए
विभावभावमां आत्मानी शोभा
मानवी रहेवा दे!
[गाथा–९१]
८–अरे! आत्मा! रागने
तारो मानी रह्यो छो तेमां आखा
ज्ञायक स्वभावना खूननुं कलंक
आवे छे! तुं तारा ज्ञान स्वभावनी
शुद्धिने जो; आ रागभाव तो उपाधि
छे–कलंक छे. अनंत–अनंत ज्ञेयो छे
तेनो महिमा नथी, पण ते अनंत
अनंत ज्ञेयोने विकल्प रहित, शंका
रहित जाणनार ज्ञान स्वभावनो
महिमा छे. [गाथा–९१]
९–पर वस्तुओ अनंती
होवाथी, जेणे परनो कर्ता पोताने
मान्यो तेनुं अनंत वीर्य पर
लक्षमां रोकाई गयुं, अने तेणे
अनंता पर पदार्थना कर्तृत्वनो
अहंकार कर्यो तेथी ते अनंत
संसारमां रखडशे; अने जेणे
परथी भिन्न पोतानुं ज्ञायक स्वरूप
जाणीने परनुं कर्तृत्व ऊडाडी दीधुं
तेनुं अनंत वीर्य पर तरफथी
खेंचाईने स्व तरफ ढळ्‌युं एटले
स्वनी अनंत द्रढता थई; स्वनी
अनंत द्रढता थतां अल्पकाळमां ज
तेनी मुक्ति छे.
[कलश–पप]
भगवान कहे छे के विचार
कर! विचार कर! अनादि
संसारमां रखडतां एकेन्द्रियादि
पर्यायमां तें केवा केवा दुःखो सहन
कर्या तेनी तने खबर नथी, पण
अमे जाणीए छीए; भाई! ए
दुःखो कह्यां जाय तेम नथी. हवे
मनुष्य थयो छो तो ध्यान
राखजे–स्वरूप समजी लेजे. आ
अपूर्व अवसर न चूकीश. जो
स्वरूपनी दरकार न करी तो तारा
दुःखोनो अंत नथी. निगोदथी
ऊंचे चडयो छो तो हवे तारा सिद्ध
स्वरूपनो सत्त्वर आधार लई ले,
जो स्वरूपनो आधार न लीधो तो
पाछो हेठो पडीने जईश
निगोदमां! अने जो स्वरूपनो
आश्रय लईश तो अनंत–अक्षय
सुखनी प्राप्ति थशे–आवी
भगवाननी भलामण छे; चेत,
चेत, प्रभु चेत! आत्मानो
स्वभाव पूर्ण जाणवा–देखवानो
छे, पूर्ण जाणवुं–देखवुं होय त्यां
पूर्ण सुख होय ज... माटे स्वभाव
ए ज सुख छे... सुख माटे
स्वभावनी श्रद्धा करवी.
[मोक्षमार्ग प्रकाशक]