: १३२ : आत्मधर्म जेठ : २००१
बीजो भव थई गयो... जुओ जीवन! हवे तो जागो!
केटलुं शांत मरण! मरण वखते पण भक्तिनो उल्लास! आराधक भाव सहितनी समाधि!
प्रश्न:– आ जाणवानुं शुं काम छे?
उत्तर:– देह द्रष्टि छोडो, संयोगनुं लक्ष छोडो, प्रतिकूळतानो भय छोडो, अनुकूळतानी रुचि छोडो; संसार
प्रत्येनो रागभाव छोडो. अने स्वरूपनी सावधानी करो. स्वरूपनी प्राप्तिनां आवां टाणां हवे फरी मळवां मोंघा
छे. अरे! तमे तमारूं परमानंद शांत स्वरूप नहि समजो तो शुं करशो? शांति क्यांथी लावशो? देह छुटतां शरण
कोनुं करशो? अने स्वरूपथी खसीने उभा क्यां रहेशो? ज्यां जशो त्यां तमारी संभाळ कोण करवा आवशे?
जीवननो भरोसो नथी, आयुष्य टुंकुं छे. जीवन–नाव हरकोई क्षणे तुटी जाय तेवुं छे. ए नाव तुटीने
संसार समुद्रमां डुबी जवानो प्रसंग बने ते पहेलांं ज परम शांति स्वरूप भगवान आत्मानां शरणां लई लो!
एना सिवाय संसार समुद्रमां डुबतां बचाववा बीजुं कोई समर्थ नथी... हवे चेतशो?
हजी जीवन छे... जीवननी पळो हजी बाकी छे, ए जीवननी पळोमां जीवन पछीनी पळोनी संधि करी
लेजो. आ देह हुं नथी, संयोग मारां नथी अने राग हुं नथी–हुं तो आत्मा छुं, मारूं ज्ञान छे एम स्व साथे
जीवननी संधि करी लेजो एटले तमने त्रिकाळी परम आनंदमय जीवननी प्राप्ति थशे, के जेथी फरीने मरणनां
टाणां ज कदि नहि आवे.
जीवनमां जुदाई जाणी लेजो; आत्माने ओळखी लेजो, शरीरादिनुं थावुं होय ते थाय, पण मारे तो
आत्मानी शांति प्रगट करवी छे... “आ भववण भव छे नहि–हुं तो अशरीरी सिद्ध आत्मा छुं” एम
निर्भयपणे श्रद्धा करी लेजो...
मनुष्यत्व मोंघु छे, जीवन टुंकु छे, सत्समागम मोंघो छे, दुर्लभ छे. सत्नी जिज्ञासा तेथी पण दुर्लभ छे,
सत् स्वरूपनी समजण अने श्रद्धा तो तेथी पण परम दुर्लभ छे–अपूर्व छे.. अने सहज आत्मस्वरूपनी स्थिरता
करी शांतिनो परमानंदमय अनुभव करतां देह छोडी–अशरीरी थई जवा माटे समाधि करवी ए टाणां तो परम–
परम अपूर्व छे––ते पळने धन्य छे!! !
जेने ज्ञानस्वरूपी आत्मानुं भान छे ते निःशंक छे. आवो! आवो! सहज समाधि आ ज क्षणे आवो.
मारी अपूर्व स्वरूप शांतिमां हुं आज क्षणे लीन थाउं छुं–भले देह जाव! हुं देह रहित छुं–हुं भगवान छुं–मारे देह
नथी, कुटुंब नथी, देश नथी, राग नथी, एम परमात्म स्वरूपनां शरण करी अपूर्व समाधि माटे तैयार रहो...!
भगवान् समय हो ऐसा, जब प्राण तनसे निकले,
आतम् से लो लगी हो, जब प्राण तनसे निकले.
जिनेन्द्र स्तवन मंजरी पानुं २०७
समयसार (पान २प९) मां श्री गुरु संसारी भव्य जीवोने संबोधी जागृत करे छे के–हे अंध प्राणीओ!
अनादि संसारथी मांडीने पर्याये पर्याये आ रागी जीवो सदाय मत्त वर्तता थका जे पदमां सूता छे––ऊंघे छे ते
पद अर्थात् स्थान अपद छे–अपद छे! ते तमारूं पद नथी–एम हे जीवो! तमे समजो. करूणाभाव वरसावता श्री
कुंदकुंदभगवान संबोधन करीने जगाडे छे अने प्रेरणा करी उल्लसित करे छे के–ओ भव्य आत्माओ! आ तरफ
आवो! आ तरफ आवो! तमारूं पद आ छे. आ पद तमारूं छे–आ पद तमारूं छे. ज्यां शुद्ध–अत्यंत शुद्ध चैतन्य
धातु निजरसनी–शांतिस्वरूपनी–अतिशयताने लीधे स्थायीभावपणाने प्राप्त छे–अर्थात् स्थिर छे–अविनाशी छे;
ए अविनाशी पद तमारूं छे. संसार तरफना वलणने छोडी दईने हवे अविनाशी स्वरूप तरफनुं वलण करो.
आत्मा ए ज परम शांतिनुं सत्ताधाम छे. आ आत्मा सर्व पर द्रव्योथी जुदो अने सर्व रागादि पर भावोथी
जुदो छे. तेथी ते परम शुद्ध छे, पोते स्वत: सिद्धस्वरूप छे तेने परनी कांई ज जरूर नथी. पर साथे संबंध नथी.
अहो! परमानंदी भगवान आत्मानी शांतिना आज क्षणे शरण करो शरण करो! [समयसार पानुं–२प९–६०
आसपासनुं वांची लेजो]
देह तो अनंत जड रजकणमय छे. एना एके एक परमाणु स्वतंत्रपणे फरे छे अनंत परमाणुं स्वतंत्रपणे
बदलीने देहरूप थया छे, अने तेओज स्वतंत्रपणे बदलीने राख रूप थाय छे, कांई आत्मा देहरूप के राखरूप
थतो नथी. आत्मा तो ज्ञानमय छे अने ज्ञान ज करे छे... एम जेणे जाण्युं छे तेने मरणनो भय शेनो? मरण छे
ज कोने? तमे आत्मा छो तमारूं सुख तमारामां छे–बीजामां नथी; एम स्वाधीनता जाणीने हवे जागृत थाव...!