Atmadharma magazine - Ank 021
(Year 2 - Vir Nirvana Samvat 2471, A.D. 1945)
(Devanagari transliteration).

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: १३४ : आत्मधर्म जेठ : २००१
लाभदायक नथी, विकार रहित मारूं स्वरूप ए ज मने लाभदायक छे, एमां ज मारूं सुख छे––एवुं भान कर्या वगर
स्वरूपमांथी निराकूळ शांति नहि ऊगे.
भाई! तारे सुख जोईए छे ने? तो पहेलांं ए नक्की कर के तारूं सुख तारामां छे के परमां? अने ते सुखनुं
साधन तारामां छे के परमां? पहेलांं तो आत्मानुं सुख आत्माथी जुदुं होई शके नहि. एटले के आत्मानुं सुख
आत्मामां ज छे अने ते सुखनो उपाय पण आत्मामां ज छे, केमके ज्यां सुख होय त्यां ज तेनो उपाय होय.
अंतरना सुखनुं साधन शरीरादि पर तो थाय ज नहि, परंतु बहारना वलणे थता शुभभाव पण अंतरना सुखनुं
साधन नथी. आ रीते स्वाश्रय स्वभावनी द्रष्टि करीने पराश्रय भाव उपर काप मूक, द्रष्टिनुं जोर फेरवी नाख. मारूं
सुख अने साधन मारामां छे, कोई परमां मारूं सुख अने साधन नथी. पर लक्षे जे वृत्ति ऊठे ते पराश्रय भाव छे,
तेमां मारूं स्वाश्रयी सुख नथी, एम अंतरथी नक्की करतां द्रष्टिमां सर्व परनो आश्रय टळी गयो, अने पराश्रय
भाव द्रष्टिमांथी टळी गयो.
आ शरीरमां तो क्यां शांति हती? शांति तो आत्मामां छे. जुओने! आ शरीर तो क्षणमां छूटी जाय छे,
क्षणे क्षणे जगतनां जीवोनां मरण थई ज रह्यां छे. जगतनां जीवोनां मरण जोईने धर्मात्माने तो संसार प्रत्ये
वैराग्य आवे, स्वरूपनी पूर्णतानी भावनानी वृद्धि थाय. आ चार्य भगवान कहे छे के–अहो! आ संसार
(शुभाशुभ वृत्तिओ) क्षणिक छे एमां आत्म–शांति नथी. एक क्षण पण अमे संसारभावमां रहेवा मागता नथी.
आ ज क्षणे संसारना सर्व भावोथी छूटीने अमे अमारा स्वरूपमां लीन थई जवा मागीए छीए. [ज्ञानीओने
समस्त संसार प्रत्ये वैराग्य आवे छे एटले तेओ संसारना कोई भाव ईच्छता नथी, स्वर्ग जे भावे मळे तेने पण
तेओ ईच्छता नथी. अने अज्ञानीने नरकादि गतिनां दुःखना भयथी वैराग्य थाय छे एटले तेने अंतरमां स्वर्गादि
गतिनी रुचि टळती नथी, तेथी तेनो वैराग्य साचो होतो नथी. साचो वैराग्य होय तो जे भावे संसार फळे अने
केवळज्ञान रोकाय ते भावनो आदर न होय.]
पुरुषार्थनी स्वतंत्रता
जीवनी पळोमां मरणनी पळने भेळवीने जे संधि करे छे तेने मरण
टाणे समाधि ज होय छे.
पहेलानां जे संस्कार नाख्या होय ते संस्कारने वर्तमानमां झीलतो आवे तो
पहेलानां संस्कारे लाभ कर्यो एम व्यवहारे कहेवाय, खरेखर तो वर्तमान पुरुषार्थ
उपर ज आधार छे. वर्तमानमां पोताने मंद के तीव्र पुरुषार्थरूप प्रणमवुं ते
पोतानी वर्तमान रुचिने आधारे छे. वर्तमान पुरुषार्थने पहेलानां संस्कार खरेखर
कांई लाभ नुकशान करता नथी, केमके वर्तमान पर्यायनो उत्पाद, पूर्वनी पर्यायना
व्य सहित छे. आ न्यायमां पुरुषार्थनी स्वतंत्रता बतावी.
जमीनमां शाकनुं बी वावे त्यां तेने एम लागे छे के आपणने हवे
शाकनी ओशीयाळ टळी गई; तेम आत्मानी श्रद्धा – दर्शनादिरूप बीजडां रोप्यां
त्यां ज एम निशंक थाय के हवे अल्प काळमां पुर्ण पर्याय प्रगटवानी ज.
अंतर स्वरूपना भान सहित ज्ञानीओ गृहस्थ दशामां होय त्यारे अस्थिरताना कारणे शुभाशुभ वृत्तिओ
थई जाय तेने ज्ञानीओ ईच्छता नथी. पण ते छोडीने स्वरूपमां संपूर्णपणे ठरवानी ज भावना होय छे. क्षण पहेलांं
भक्ति, प्रभावना, दान वगेरेना भाव अने उल्लास होय अने एक कलाकमां तो देह छोडीने बीजो भव थई गयो
होय–आवां वैराग्यनां निमित्तो जोईने धर्मात्माने पूर्णतानी भावना ऊछळी जाय के–अरेरे! अमारा केवळज्ञानना
विरह पड्या छे! अमारी परिपूर्ण सिद्धदशाना विरहा छे! हवे आ समस्त संसार छोडी अमे अमारा पूर्णानंदने
साधशुं. अमारूं परिपूर्ण साध्य अने साधन बन्ने अंतरमां छे, अमारी साधना अंतरमां समाय छे. अंतर साधन
वडे अमे अमारा साध्यनी सिद्धि करीशुं. अहा आ संसार! धिककार छे आ संसार भावने! अमारूं परम पवित्र
परमात्मपद अंतरमां पड्युं छे तेनी रुचि अने भान छतां आ अस्थिरता शी!! अरे! अमने अमारा सिद्धपदना विरह
शुं! एम धर्मात्मा पोतानी सिद्धदशाना विरहथी अंतरमां कळकळी ऊठे छे, ––परिपूर्ण पुरुषार्थनी भावना करे छे.
अरे! अमारा परिपूर्ण स्वरूपमां आ विकल्प न होय! अमारा स्वरूपमां आंतरा शा? अरे आ संसार तो
क्षणभंगुर ज छे तेमां संयोग–वियोग थया ज करे, आ शरीरनो वियोग थाय तेमां शी नवाई? पण अमने