ज होवा छतां, आ साध्य साधन वच्चे अंतर ए पालवतुं नथी. आम धर्मात्माने मोक्षदशा माटे अंतरमां
कळकळाट थाय छे. अज्ञानी शरीरना वियोगे कळकळाट करे छे, ज्ञानीने मोक्षदशाना विरहना कलबलाट थाय छे.
आत्मस्वरूपना भान पछी ज्ञानीओने पण अस्थिरताने कारणे कोईवार अशुभभाव आवी जाय अने
अशुभभावथी बचवा माटे देव–गुरु–धर्मनी भक्ति–प्रभावनानी शुभवृत्ति पण ऊठे, परंतु ते अशुभ के शुभ
बेमांथी एकेयमां अमारा आत्माना सुखनुं साधन नथी, परंतु ते बंने प्रकारनी वृत्तिओ अमारा स्वरूपना
सुखने रोकनार छे. अमारा अंतर स्वरूपनुं साधन बहिरमुख वलण तरफना भावमां नथी, परंतु अमारा अंतर
स्वभावमां ज छे; ए स्वभावना जोरे पूर्ण साधन प्रगटावी अमारूं परिपूर्ण साध्य–अशरीरी सिद्ध दशा प्रगट
करशुं. पुण्य–पाप बंनेमां आकूळता छे, मूंझवण छे, तेमां मारूं साधन नथी; मारूं साधन तो धर्म स्वरूप ज्ञायक
अमूंझवण निराकूळ भगवान आत्मा ज छे–आ प्रमाणेना श्रद्धा–ज्ञान वगर बीजी कोई चीजनुं अवलंबन
आत्माने–पोताना सुख माटे नथी.
अवतार पामीने तें शुं कर्युं? भाई! स्वाधीन आत्म स्वरूपनी श्रद्धा, अनुभव अने अंतरवेदन सिवाय बीजा कोई
पण भाव के शरीर कुटुंब वगेरे कोई पर चीज शरणभूत थाय तेम नथी, शरीर तो अनंत जड रजकणनो पिंड छे,
तेना एके एक परमाणुनुं परिणमन स्वतंत्र छे; कोने कहेवा शरीर ने कोने कहेवुं कुटुंब? जडनां परिणमनमां
संयोग वियोग तो थया ज करे, ए तो एनो स्वभाव छे. कोईनुं परिणमन परने ताबे त्रणकाळमां नथी.
शुभ के अशुभ लागणी एक सरखी टकती नथी, गमे तेवी लागणी होय तो पण ते क्षणमां फरी जाय छे, अने
नवी ऊभी थाय छे. अंतरमां जे शुभ के अशुभ–लागणी थाय छे ते ओछी वधती थया ज करे छे, अने ते
लागणीओने जाणनार आत्मानुं ज्ञान तो सळंग एकरूप रहे छे. ज्ञान सदाय आत्मा साथे रहे छे अने पुण्य–
पापनी लागणी क्षणे क्षणे फरी जाय छे, माटे ज्ञानी जाणे छे के:– ज्ञान मारूं स्वरूप छे अने तेमां ज मारूं सुख छे;
परंतु शुभाशुभ लागणी थाय ते मारूं स्वरूप नथी अने तेमां मारूं सुख कदिपण नथी. पुण्य–पापनी लागणी
विकारी, खंडखंडरूप छे अने मारो ज्ञानस्वभाव सळंग निर्विकारी अखंड छे, अने ए ज मारा सुखनुं साधन छे.
मारा सुखना साधन माटे मारे शरीरनी के कोई पण शुभाशुभ वृत्तिनी मदद नथी, हुं ज मारा सुखनुं साधन छुं
अने मारामां ज मारूं सुख छे.