Atmadharma magazine - Ank 021
(Year 2 - Vir Nirvana Samvat 2471, A.D. 1945)
(Devanagari transliteration).

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जेठ : २००१ आत्मधर्म : १३५ :
अमारा पूर्णानंद स्वरूपना विरहा पालवता नथी. [धर्मात्माने शरीरना वियोगनुं जराय दुःख नथी, परंतु
पोतानी पूर्णानंद सिद्धदशाना विरहनुं वेदन छे.]
स्वभावनी द्रढता
“मारूं सुख मारामां ज छे, मारा सुख माटे कोई पर वस्तुनी मारे जरूर
नथी” एम अंतरनी द्रढता करतां पर उपरनी मता छूटी जाय छे; जे परने
पोताना माने छे ते चोराशीमां रखडवाना दु:खने नोतरे छे.
स्वभावनी रुचि, श्रद्धा, द्रढता विना त्रणकाळमां धर्म थशे नहि. जो तारे
धर्म करवो होय तो कोई पण पर वस्तु तारी चीज नथी. एम स्वनी द्रढता
करतां परनी द्रढता खसी जाय छे.
अत्यार सुधीना अनंतकाळमां जीव कोईनुं भलुं – बूरुं करी शक्यो नथी पोताथी
मात्र पोतानुं नुकशान कर्युं छे. जो नुकशान न कर्युं होत तो जन्म मरण होत
नहि. सत्नी रुचि विना स्वभावनी रुचि आवे नहि ने परनी रुचि जाय नहि;
अने जेने स्वभावनी रुचि नथी तेने परनी भावना थया विना रहे नहि.
अमारा सुखनुं साधन शरीर तो नहि, परंतु पुण्य–पापना विकल्प ऊठे ते पण अमारा सुखनुं साधन
नथी. अमारूं पूर्णानंदी साध्य अने तेनुं साधन बन्ने अमारा अंतरमां छे. अमारूं साध्य–साधन बंने अंतरमां
ज होवा छतां, आ साध्य साधन वच्चे अंतर ए पालवतुं नथी. आम धर्मात्माने मोक्षदशा माटे अंतरमां
कळकळाट थाय छे. अज्ञानी शरीरना वियोगे कळकळाट करे छे, ज्ञानीने मोक्षदशाना विरहना कलबलाट थाय छे.
आत्मस्वरूपना भान पछी ज्ञानीओने पण अस्थिरताने कारणे कोईवार अशुभभाव आवी जाय अने
अशुभभावथी बचवा माटे देव–गुरु–धर्मनी भक्ति–प्रभावनानी शुभवृत्ति पण ऊठे, परंतु ते अशुभ के शुभ
बेमांथी एकेयमां अमारा आत्माना सुखनुं साधन नथी, परंतु ते बंने प्रकारनी वृत्तिओ अमारा स्वरूपना
सुखने रोकनार छे. अमारा अंतर स्वरूपनुं साधन बहिरमुख वलण तरफना भावमां नथी, परंतु अमारा अंतर
स्वभावमां ज छे; ए स्वभावना जोरे पूर्ण साधन प्रगटावी अमारूं परिपूर्ण साध्य–अशरीरी सिद्ध दशा प्रगट
करशुं. पुण्य–पाप बंनेमां आकूळता छे, मूंझवण छे, तेमां मारूं साधन नथी; मारूं साधन तो धर्म स्वरूप ज्ञायक
अमूंझवण निराकूळ भगवान आत्मा ज छे–आ प्रमाणेना श्रद्धा–ज्ञान वगर बीजी कोई चीजनुं अवलंबन
आत्माने–पोताना सुख माटे नथी.
अरे! अनंतकाळे आवां मनुष्यदेह मळ्‌यां, अने अहीं सुधी आव्यो–साचा देव–गुरु–धर्म मळ्‌यां अने हवे
चिदानंद ज्ञानमूर्ति आत्मानुं भान करीने भवनो अभाव न थाय–जन्म–मरणनो अंत न आवे तो मनुष्य
अवतार पामीने तें शुं कर्युं? भाई! स्वाधीन आत्म स्वरूपनी श्रद्धा, अनुभव अने अंतरवेदन सिवाय बीजा कोई
पण भाव के शरीर कुटुंब वगेरे कोई पर चीज शरणभूत थाय तेम नथी, शरीर तो अनंत जड रजकणनो पिंड छे,
तेना एके एक परमाणुनुं परिणमन स्वतंत्र छे; कोने कहेवा शरीर ने कोने कहेवुं कुटुंब? जडनां परिणमनमां
संयोग वियोग तो थया ज करे, ए तो एनो स्वभाव छे. कोईनुं परिणमन परने ताबे त्रणकाळमां नथी.
शुभाशुभ लागणी थाय ते कोई कर्म के शरीर करावतां नथी, पण पोताना पुरुषार्थनी नबळाईथी थाय
छे. आत्मा पोते ते लागणी परलक्षे ऊभी करे छे; एम तुं तारा परिणाम तरफ जो, तो तने जणाशे के कोई पण
शुभ के अशुभ लागणी एक सरखी टकती नथी, गमे तेवी लागणी होय तो पण ते क्षणमां फरी जाय छे, अने
नवी ऊभी थाय छे. अंतरमां जे शुभ के अशुभ–लागणी थाय छे ते ओछी वधती थया ज करे छे, अने ते
लागणीओने जाणनार आत्मानुं ज्ञान तो सळंग एकरूप रहे छे. ज्ञान सदाय आत्मा साथे रहे छे अने पुण्य–
पापनी लागणी क्षणे क्षणे फरी जाय छे, माटे ज्ञानी जाणे छे के:– ज्ञान मारूं स्वरूप छे अने तेमां ज मारूं सुख छे;
परंतु शुभाशुभ लागणी थाय ते मारूं स्वरूप नथी अने तेमां मारूं सुख कदिपण नथी. पुण्य–पापनी लागणी
विकारी, खंडखंडरूप छे अने मारो ज्ञानस्वभाव सळंग निर्विकारी अखंड छे, अने ए ज मारा सुखनुं साधन छे.
मारा सुखना साधन माटे मारे शरीरनी के कोई पण शुभाशुभ वृत्तिनी मदद नथी, हुं ज मारा सुखनुं साधन छुं
अने मारामां ज मारूं सुख छे.