Atmadharma magazine - Ank 022
(Year 2 - Vir Nirvana Samvat 2471, A.D. 1945)
(Devanagari transliteration).

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: अषाढ : २००१ : आत्मधर्म : १६१ :
गामडामां जेने त्यां २००–३०० मण अनाज पाकतुं होय तेना वसवाया [काम करनारा] ने बे–त्रण
मण अनाज मळे, वधारे न मळे, पण जेने त्यां हजारो मण अनाज पाकतुं होय तेना वसवायाने पूरतुं अनाज
मळे तेम अल्पज्ञ उपदेशकनी वाणीमांथी श्रोताओने थोडुं मळे. अने सर्वज्ञ देवना पूर्ण धोधमार ध्वनिमांथी पात्र
श्रोताओने श्रुतना धोध मळे छे. महाविदेहमां सीमंधर भगवाननी धोधमार धर्मनी धीखती पेढी चाली रही छे,
ए धोधमार वाणीनो साक्षात् लाभ भगवत्कुंदकुंदने आठ दिन मळ्‌यो छे, अने पछी तेमणे आ समयसारनी
रचना करी छे, आ समयसारना ऊंडाणमां अमाप...अगाध....अगाध भावो भर्यां छे.
अहो! कुंदकुंदाचार्यनी शी वात करीए? तेमनी अंतरनी दशा संबंधी समयसारनी छठ्ठी गाथामां तेओ ज
कहे छे के–
णवि होदि अप्पमत्तो ण पमत्तो जाणओ दु जो भावो।
एवं भणंति सुद्धं णाओ जो सो उ सो चेव।।
६।।
आ गाथामां आचार्यदेवे पोतानी वर्तमान वर्तती भूमिकाथी वात मूकी छे. सीमंधर भगवान पासेथी
कुंदकुंद आचार्यने पूर्णात्मानुं स्वरूप तद्न निःशंकपणे मळ्‌युं. ते कुंदकुंद आचार्य मुनिओना नायक हता, भरतक्षेत्रना
धर्मना धोध वहेडावनार महान संत हता. अहो! आ छठ्ठी गाथामां तो तेओए ज्ञायकने ज वर्णव्यो छे–
‘नथी अप्रमत्त के प्रमत्त नथी जे एक ज्ञायकभाव छे, ए रीत शुद्ध कथाय ने जे ज्ञान ते तो ते ज छे.’
आचार्यदेव सातमा अने छठ्ठा अप्रमत्त अने प्रमत्त गुणस्थान दशामां झूली रह्यां छे, ते बे भंगनो नकार
करतां कहे छे के–हुं अप्रमत्त के प्रमत्त नथी, हुं ज्ञायक छुं. ‘अप्रमत्त–प्रमत्त नथी’ आम केम कह्युं? ‘हुं अकषाय–
सकषाय नथी, अगर हुं अयोगी–सयोगी नथी’ एम केम न आव्युं?
णवि होदि अपम्मत्तो हुं अप्रमादि नथी
तेमज ण पम्मत्तो हुं प्रमादी नथी. पण ए बे दशाना भेदथी रहित हुं ज्ञायक भाव छुं एम केम आव्युं?
आचार्यदेव पोते सातमी छठ्ठी भूमिकामां झुली रह्यां छे एटले गाथामां पण सहजपणे ते दशाथी कथन आव्युं छे.
छठ्ठीना लेख जेवी छठ्ठी गाथा टंकोत्किर्ण छे. शास्त्र रचनानो विकल्प उठयो, पण आत्माथी अक्षरनी
रचना न थाय, तेमज विकल्प उठे ते पण मारूं स्वरूप नहि, अरे! अप्रमत्त–प्रमत्त दशाना भेद पण हुं नहीं–हुं
तो ज्ञायक छुं...आम छठ्ठी गाथामां तो केवळज्ञाननी शरूआत करी छे. आ गाथामां पोतानुं अंतर रेडी दीधुं छे.
पोते वर्तमान अप्रमत्त–प्रमत्त दशा वच्चे वर्ती रह्यां छे एटले गाथामां ते ज शब्दो आव्या छे. हजी पोताने
अकषायदशा प्रगटी नथी अने साधक दशामां अप्रमत्त–प्रमत्त दशाना बे भेद पडे छे, ते भेदनो नकार करतां कहे
छे के हुं अप्रमत्त के प्रमत्त नथी, हुं अखंडानंद ज्ञायक छुं; एम आ गाथामां आचार्यदेवे अभेद ज्ञायक भावनो
अनुभव उतार्यो छे. पोताना अनुभवनी जे दशा छे ते दशाथी वर्णन मूकयुं छे.
अवस्थाना बे भेद पडे ते हुं नथी, हुं ज्ञायक ज्योत ज छुं, आनंद स्वरूप ज त्रिकाळ छुं. ‘आनंद न हतो’
अने ‘आनंद प्रगट करूं’ एवा भेदरूप बे पडखांनो हुं आ टाणे निषेध करूं छुं; आ टाणे तो ज्ञायकभाव दर्शाववो
छे हुं एकरूप ज्ञायकभाव परम पारिणामिक भाव छुं एटले के हुं कारण परमात्मा छुं. ‘हुं कारण परमात्मां छुं’
एम कहेतां पोतानी वर्तमान स्वभाव तरफ ढळती निर्मळदशा पण भेगी आवी ज जाय छे; केमके कारण
परमात्माने प्रतीतमां लेनार तो ते पर्याय छे.
कारण परमात्मा एटले एकरूप धु्रव त्रिकाळी वस्तु के जे निर्मळ पर्याय प्रगटवानुं कारण छे ते कारण
परमात्मा छे–ते ज ‘ज्ञायक भाव’ छे. नियमसार शास्त्र ए पण कुंदकुंदाचार्यदेवनुं रचेलुं छे. तेनी टीकामां
अलौकिक गूढ वात छे. आचार्योए धर्मना थांभला जेवुं कार्य कर्युं छे. वीतराग शासनने टकावी राख्युं छे.
नियमसारजीनी टीकामां पद्मप्रभमलधारी आचार्यदेवे महा गूढ रहस्य उतार्युं छे, अहो! शुं अध्यात्मनी वात
छे....! कारण परमात्माने स्पष्टपणे दर्शावी दीधो छे. अहीं छठ्ठी गाथामां ‘ज्ञायक भाव’ मां पण ते ज ध्वनि छे.
कारण परमात्मा ते मोक्षमार्गरूप तो नथी, परंतु मोक्ष पण नथी. ए तो धु्रव स्वरूप छे, अने तेना ज जोरे मोक्ष
दशा प्रगटे छे. मोक्षनुं कारण कोई विकल्प तो नहि, अने सम्यग्दर्शन–सम्यग्ज्ञान अने सम्यक्चारित्र रूप
निर्विकार पर्याय पण मोक्षनुं कारण व्यवहारथी छे केमके केवळज्ञानादि दशा तो अनंतगणी शुद्ध छे अने
सम्यग्दर्शनादि तो बारमां गुणस्थानना छेल्ला समय सुधी केवळज्ञान करतां अनंतमां भागे अधूरी दशा छे.
बारमी भूमिकाना छेल्ला समये जे ज्ञान, सुख, वीर्य वगेरे छे तेना करतां तेरमां गुणस्थानना पहेलां समये
अनंतगणा ज्ञान, सुख, वीर्य वगेरे होय छे, माटे सम्यग्दर्शनादि मोक्षनुं कारण व्यवहारे छे, मोक्षनुं निश्चयकारण
तो उपर कह्यो ते ज्ञायकभाव–कारण परमात्मा छे.