: १५६ : आत्मधर्म : अषाढ : २००१ :
कोई क्रिया के एक विकल्प पण मारूं स्वरूप नथी, हुं तेनो कर्ता नथी–एवा भान द्वारा जेणे मिथ्यात्वनो नाश
करीने सम्यग्दर्शन प्रगट कर्युं छे ते जीव लडाईमां हो के विषय सेवन करतो होय छतां पण ते वखते तेने
संसारनी वृद्धि थती नथी, अने एकतालीस प्रकृतिना बंधनो तो अभाव ज छे. आ जगतमां मिथ्यात्वरूप ऊंधी
मान्यता समान पाप अन्य कोई नथी.
आत्मानुं भान करतां अपूर्व सम्यग्दर्शन प्रगटे छे. ए सम्यग्दर्शन सहित जीव लडाईमां होवा छतां तेने
अल्प पाप छे अने ते पाप तेने संसारनी वृद्धि करी शकतुं नथी, केमके तेने मिथ्यात्वनुं अनंतु पाप टळी गयुं छे.
अने आत्माना अभानमां मिथ्याद्रष्टि जीव पुण्यादिनी क्रियाने पोतानुं स्वरूप माने छे ते पूंजणी वडे पूंजतो होय
ते पूंजती वखते पण तेने, लडाई लडता अने विषय भोगवता सम्यग्द्रष्टि जीव करतां अनंतु मोटुं पाप
मिथ्यात्वनुं छे. आवुं मिथ्यात्वनुं महान पाप छे. अने सम्यग्द्रष्टि जीव अल्पकाळमां ज मोक्षदशा पामवानो छे–
आवो महान धर्म सम्यग्दर्शनमां छे.
जगतना जीवो सम्यग्दर्शन अने मिथ्यादर्शननुं स्वरूप ज समज्या नथी. पापनुं माप बहारना संयोग
उपरथी काढे छे, परंतु खरूं पाप–त्रिकाळ महान पाप तो एक समयना ऊंधा अभिप्रायमां छे, ते मिथ्यात्वनुं
पाप तो जगतना ख्यालमां ज आवतुं नथी. अने अपूर्व आत्मभान प्रगटतां अनंत संसार कपाई गयो अने
अभिप्रायमां सर्व पाप टळी ज गयां–ए सम्यग्दर्शन शुं चीज छे ते जगतना जीवोए सांभळ्युं पण नथी.
मिथ्यात्वरूपी महानपापना सद्भावमां अनंत व्रत करे, तप करे, देव–दर्शन, भक्ति, पूजा, बधुं करे, देश
सेवाना भाव करे छतां तेने जरापण संसार टळतो नथी. एक सम्यग्दर्शन [आत्माना स्वरूपनी साची
ओळखाण] ना उपाय सिवाय बीजा जे अनंत उपाय छे ते बधा उपाय करवा छतां मिथ्यात्व टाळ्या सिवाय
धर्मनो अंश पण थाय नहि–अने जन्म–मरण एक पण टळे नहि... माटे हरकोई उपाय वडे–सर्वप्रकारे उपाय
करीने मिथ्यात्वनो नाश करी सम्यक्त्व शीघ्र प्राप्त करवुं जरूरी छे. सम्यक्त्वनो उपाय एज कर्तव्य छे.
ए खास ध्यान राखवुं के कोई पण शुभ भावनी क्रिया के व्रत–तप ए सम्यक्त्व प्रगट करवानो उपाय
नथी, परंतु पोताना आत्म स्वरूपनी समजण अने पोताना आत्मानी रुचि तथा लक्षपूर्वक सत्समागम ए ज
तेनो उपाय छे–बीजो कोई उपाय नथी.
‘हुं परनुं करी शकुं, पर मारूं करी शके अने पुण्य करतां करतां धर्म थाय’ एवा प्रकारनी मिथ्यात्वनी
ऊंधी मान्यतामां–एक क्षणमां अनंती हिंसा छे, अनंत असत्य छे, अनंत चोरी छे, अनंत अब्रह्मचर्य
(व्यभिचार) छे अने अनंत परिग्रह छे. जगतना अनंता पापनुं एक साथे सेवन एक मिथ्यात्वमां छे.
१–हुं पर द्रव्यनुं करी शकुं एटले जगतमां अनंत पर द्रव्य छे ते सर्वेने पराधीन मान्यां अने ‘पर मारूं
करी शके’ एटले पोताना स्वभावने पराधीन मान्यो–आ मान्यतामां जगतना अनंत पदार्थो अने पोताना
अनंत–स्वभावनी स्वाधीनतानुं खून कर्युं–तेथी तेमां अनंत हिंसानुं महान पाप आव्युं.
२–जगतना बधा पदार्थो स्वाधीन छे तेने बदले बधाने पराधीन–विपरीतस्वरूपे मान्या तथा जे पोतानुं
स्वरूप नथी तेने पोतानुं स्वरूप मान्युं–ए मान्यतामां अनंत असत् सेवननुं महापाप आव्युं.
३–पुण्यनो एक विकल्प के कोई पण परवस्तुने जेणे पोतानी मानी तेणे त्रणे काळनी परवस्तु अने
विकार भावने पोतानुं स्वरूप मानीने अनंती चोरीनुं महान पाप कर्युं छे.
४–एक रजकण पण पोतानो नथी छतां हुं तेनुं करी शकुं एम जे माने छे ते परद्रव्यने पोतानुं माने छे, त्रणे
जगतना जे पर पदार्थो छे ते सर्वने पोताना माने छे–एटले आ मान्यतामां अनंत परिग्रहनुं महापाप आव्युं.
प–एक द्रव्य बीजानुं कांई पण करी शके एम माननारे स्वद्रव्य–परद्रव्यने भिन्न न राखतां ते बे वच्चे
व्यभिचार करी, बेमां एकपणुं मान्युं, अने एवा अनंत परद्रव्यो साथे एकतारूप व्यभिचार कर्यो ते ज अनंत
मैथुन सेवननुं महापाप छे.
आ रीते जगतना सर्वे महा पापो एक मिथ्यात्वमां ज समाई जाय छे तेथी जगतनुं सौथी महान पाप
मिथ्यात्वज छे. अने सम्यग्दर्शन थतां उपरना सर्वे महापापोनो अभाव ज होय छे तेथी जगतनो सौथी प्रथम
धर्म सम्यक्त्व ज छे. माटे मिथ्यात्व छोडो, सम्यक्त्व प्रगट करो. • • •