Atmadharma magazine - Ank 023
(Year 2 - Vir Nirvana Samvat 2471, A.D. 1945)
(Devanagari transliteration).

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: १७८ : आत्मधर्म : श्रावण : २००१ :
एनी मेळे थई जतुं नथी पण पोताना ज्ञानमां रुचि अने पुरुषार्थथी आत्म कल्याण थाय छे. पोतानुं कल्याण
करवा माटे, जेओने पुर्ण कल्याण प्रगट्युं छे ते कोण छे, तेओ शुं कहे छे, तेओए प्रथम शुं कर्युं हतुं–एनो
पोताना ज्ञानमां निर्णय करवो पडशे; एटले के सर्वज्ञनुं स्वरूप जाणीने तेमना कहेला श्रुतज्ञानना अवलंबनथी
पोताना आत्मानो निर्णय करवो जोईए, ए ज प्रथम कर्तव्य छे. कोई परना अवलंबनथी धर्म प्रगटतो नथी.
छतां ज्यारे पोते पोताना पुरुषार्थथी समजे छे त्यारे सामे निमित्त तरीके सत्देव–गुरु ज होय छे.
आ रीते पहेलो ज निर्णय ए आव्यो के कोई पुर्ण पुरुष संपुर्ण सुखी छे अने संपुर्ण ज्ञाता छे; ते ज
पुरुष पुर्ण सुखनो पुर्ण सत्य मार्ग कही शके छे; पोते ते समजीने पोतानुं पुर्ण सुख प्रगट करी शके छे अने पोते
समजे त्यारे साचा देव–गुरु शास्त्रो ज निमित्तरूप होय छे. जेने स्त्री, पुत्र, पैसा, वगेरेनी एटले के संसारना
निमित्तो तरफनी तीव्र रुचि हशे तेने धर्मनां निमित्तो–देव–गुरु–शास्त्र प्रत्येनी रुचि नहि थाय एटले तेने
श्रुतज्ञाननुं अवलंबन टकशे नहि अने श्रुतज्ञानना अवलंबन वगर आत्मानो निर्णय थाय नहि. केमके
आत्माना निर्णयमां सत् निमित्तो ज होय परंतु कुदेव–कुगुरु–कुशास्त्र ए कोई आत्माना निर्णयमां निमित्त रूप
थाय ज नहि. जे कुदेवादिने माने तेने आत्मनिर्णय होय ज नहि.
बीजानी सेवा करीए तो धर्म थाय–ए मान्यता तो जिज्ञासुने होय ज नहि. पण यथार्थ धर्म केम थाय ते
माटे प्रथम पुर्ण ज्ञानी भगवान अने तेमनां कहेलां शास्त्रोना अवलंबनथी ज्ञान स्वभावी आत्मानो निर्णय
करवानो उद्यमी थाय. धर्मनी कळा ज जगत समज्युं नथी. जो धर्मनी एक कळा पण शीखे तो तेनो मोक्ष थया
वगर रहे नहि.
जिज्ञासु जीव पहेलांं सुदेवादिनो अने कुदेवादिनो निर्णय करीने कुदेवादिने छोडे छे, अने सद्देव–गुरुनी
एवी लगनी लागी छे के–सत्पुरुषो शुं कहे छे ते समजवानुं ज लक्ष छे, एटले अशुभथी तो हठी ज गयो छे. जो
सांसारिक रुचिथी पाछो नहि हठे तो श्रुतना अवलंबनमां टकी शकशे नहि.
धर्म क्यां छे अने केम थाय?
घणा जिज्ञासुओने आ ज प्रश्न ऊठे छे के धर्म माटे प्रथम शुं करवुं? शुं डुंगरा उपर चडवुं, के सेवा–पुजा
कर्या करवी के गुरुनी भक्ति करीने तेमनी कृपा मेळववी के दान करवुं? तो तेना जवाबमां कहे छे के एमां क्यांय
आत्मानो धर्म नथी. धर्म तो पोतानो स्वभाव छे, धर्म पराधीन नथी, कोईना अवलंबने धर्म थतो नथी, धर्म
कोईनो आप्यो अपातो नथी, पण पोतानी ओळखाणथी ज धर्म थाय छे. जेने पोतानो पुर्णानंद जोईए छे तेणे
पुर्णआनंदनुं स्वरूप शुं छे, ते कोने प्रगट्यो छे ते नक्की करवुं जोईए. जे आनंद हुं ईच्छुं छुं ते पुर्ण अबाधित
ईच्छुं छुं एटले कोई आत्माओ तेवी पुर्णानंद दशा पाम्या छे अने तेओने पुर्णानंद दशामां ज्ञान पण पुर्ण ज छे;
केमके जो ज्ञान पुर्ण न होय तो राग–द्वेष रहे अने राग–द्वेष रहे तो दुःख रहे, ज्यां दुःख होय त्यां पुर्णानंद न
होई शके. माटे जेमने पुर्णानंद प्रगट्यो छे एवा सर्वज्ञ भगवान छे तेमनो, अने तेओ शुं कहे छे तेनो
जिज्ञासुए निर्णय करवो जोईए. तेथी ज कह्युं छे के प्रथम, श्रुत–ज्ञानना अवलंबन वडे आत्मानो निर्णय
करवो... आमां उपादान–निमित्तनी संधि रहेली छे. ज्ञानी कोण छे, सत् वात कोण कहे छे–ए बधुं नक्की करवा
माटे निवृत्ति लेवी जोईए. जो स्त्री–कुटुंब–लक्ष्मीनो प्रेम अने संसारनी रुचिमां ओछप नहि थाय तो ते
सत्समागम माटे निवृत्ति लई शकशे नहि. श्रुतनुं अवलंबन लेवानुं कह्युं त्यां ज तीव्र अशुभ भावनो तो त्याग
आवी गयो, अने साचा निमित्तोनी ओळखाण करवानुं पण आवी गयुं...
सुखनो उपाय – ज्ञान अने सत्समागम.
तारे सुख जोईए छे ने? जो तारे सुख जोईतुं होय तो तुं पहेलांं सुख क्यां छे अने ते केम प्रगटे तेनो
निर्णय कर, ज्ञान कर. सुख क्यां छे अने केम प्रगटे छे तेना ज्ञान वगर सूकाई जाय तो पण सुख न मळे––धर्म
न थाय. सर्वज्ञ भगवानना कहेला श्रुतज्ञानना अवलंबन वडे ए निर्णय थाय छे अने ते निर्णय करवो ए ज
प्रथम धर्म छे. जेने धर्म करवो होय ते धर्मीने ओळखी तेओ शुं कहे छे तेनो निर्णय करवा माटे सत्समागम करे.
सत्समागमे जेने श्रुतज्ञाननुं अवलंबन थयुं के अहो! परिपुर्ण आत्मवस्तु, आ ज उत्कृष्ट महिमावंत छे, आवुं
परम स्वरूप में अनंतकाळमां