Atmadharma magazine - Ank 023
(Year 2 - Vir Nirvana Samvat 2471, A.D. 1945)
(Devanagari transliteration).

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: १८० : आत्मधर्म : श्रावण : २००१ :
ते बधां पडखां जाणीने एक ज्ञान स्वभावी आत्मानो निश्चय करवो जोईए. आमां भगवान केवां, तेनां शास्त्रो
केवां अने तेओ शुं कहे छे ए बधानुं अवलंबन एम निर्णय करावे छे के तुं ज्ञान छो, आत्मा ज्ञान स्वरूपी ज
छे, ज्ञान सिवाय बीजुं कांई तुं करी शकतो नथी.
देव–गुरु–शास्त्र केवां होय अने ते देव–गुरु–शास्त्रने ओळखीने तेमनुं अवलंबन लेनार पोते शुं
समज्यो होय ते आमां बताव्युं छे. ‘तुं ज्ञान स्वभावी आत्मा छो, तारो स्वभाव जाणवानो ज छे, कांई परनुं
करवुं के पुण्य–पापना भाव करवा ते तारूं स्वरूप नथी’ आम जे बतावता होय ते साचां देव–गुरु–शास्त्र छे,
अने आ प्रमाणे जे समजे ते ज देव–गुरु–शास्त्रना अवलंबने श्रुतज्ञानने समज्यो छे. पण जे रागथी धर्म
मनावता होय, शरीराश्रित क्रिया आत्मा करे एम मनावता होय, जड कर्म आत्माने हेरान करे एम कहेता होय
ते कोई देव–गुरु–शास्त्र साचां नथी.
जे शरीरादि सर्व परथी भिन्न ज्ञानस्वभावी आत्मानुं स्वरूप बतावतां होय अने पुण्य–पापनुं कर्तव्य
आत्मानुं नथी एम बतावतां होय ते ज सत्श्रुत छे, ते ज साचा देव छे अने ते ज साचा गुरु छे. जे पुण्यथी
धर्म बतावे, शरीरनी क्रियानो कर्ता आत्मा छे एम बतावे अने रागथी धर्म बतावे ते बधा कुदेव, कुगुरु,
कुशास्त्र छे. केमके तेओ जेम छे तेम वस्तु स्वरूपना जाणकार नथी अने तेथी ऊल्टुं स्वरूप बतावे छे. वस्तु
स्वरूप जेम छे तेम न बतावे अने जरापण विरूद्ध बतावे ते कोई देव, कोई गुरु के कोई शास्त्र साचां नथी.
श्रुतज्ञाना अवलंबनुं फळ – आत्मअनुभव
‘हुं आत्मा तो ज्ञायक छुं, पुण्य–पापनी वृत्तिओ मारूं ज्ञेय छे, ते मारा ज्ञानथी जुदी छे’ आम पहेलांं
विकल्प द्वारा, देव–गुरु–शास्त्रना अवलंबने यथार्थ निर्णय करे छे, हजी ज्ञान स्वभावनो अनुभव थयो नथी त्यार
पहेलांंनी वात छे. जेणे स्वभावना लक्षे श्रुतनुं अवलंबन लीधुं छे ते अल्पकाळमां आत्मअनुभव करशे ज. प्रथम
विकल्पमां एम नक्की कर्युं के परथी तो हुं जुदो, पुण्य–पाप पण मारूं स्वरूप नहि, मारा शुद्ध स्वभाव सिवाय देव–
गुरु–शास्त्रनुं पण अवलंबन परमार्थे नहि, हुं तो स्वाधीन ज्ञान स्वभावी छुं;–आम जेणे निर्णय कर्यो तेने
अनुभव थया वगर रहेशे ज नहि. अहीं शरूआत ज एवी जोरदार उपाडी छे के पाछा पडवानी वाज ज नथी.
पुण्य–पाप मारूं स्वरूप नथी, हुं ज्ञायक छुं आवी जेणे निर्णय द्वारा हा पाडी एटले तेनुं परिणमन पुण्य–
पाप तरफथी पाछुं खसीने ज्ञायक स्वभाव तरफ ढळ्‌युं एटले तेने पुण्य–पापनो आदर न रह्यो तेथी ते
अल्पकाळमां पुण्य–पाप रहित स्वभावनो निर्णय करीने अने तेनी स्थिरता करीने वीतराग थई पूर्ण थई जशे.
पूर्णनी ज वात छे–शरूआत अने पूर्णता वच्चे आंतरो पाडयो ज नथी. शरूआत थई छे ते पूर्णताने लक्षमां
लईने ज थई छे. संभळावनार अने सांभळनार बंनेनी पूर्णता ज छे. जेओ पूर्ण स्वभावनी वात करे छे ते
देव–गुरु अने शास्त्र ए त्रणे तो पवित्र ज छे, तेना अवलंबने जेणे हा पाडी ते पण पूर्ण पवित्र थया वगर रहे
ज नहि... पूर्णनी हा पाडीने आव्यो छे ते पूर्ण थशे ज... आ रीते उपादान–निमित्तनी संधि साथे ज छे.
सम्यग्दर्शन थया पहेलां.
आत्मानंद प्रगट करवा माटेनी पात्रतानुं स्वरूप कहेवाय छे. तारे धर्म करवो छे ने! तो तुं तने ओळख.
पहेलामां पहेलांं साचो निर्णय करवानी वात छे. अरे, तुं छो कोण? शुं क्षणिक पुण्य–पापनो करनार ते ज तुं
छो? ना, ना. तुं तो ज्ञान करनार ज्ञानस्वभावी छो. परने ग्रहनार के छोडनार तुं नथी, जाणनार ज तुं छो.
आवो निर्णय ते ज धर्मनी पहेली शरूआतनो (सम्यग्दर्शननो) उपाय छे. शरूआतमां एटले के सम्यग्दर्शन
पहेलांं आवो निर्णय न करे तो ते पात्रतामां पण नथी. मारो सहज स्वभाव जाणवानो छे–आवो श्रुतना
अवलंबने जे निर्णय करे छे ते पात्र जीव छे. जेने पात्रता प्रगटी तेने अंतर अनुभव थवानो ज छे. सम्यग्दर्शन
थया पहेलांं जिज्ञासु जीव, धर्म सन्मुख थयेलो जीव, सत्समागमे आवेलो जीव श्रुतज्ञानना अवलंबने
ज्ञानस्वभावी आत्मानो निर्णय करे छे.
हुं ज्ञानस्वभावी जाणनार छुं, ज्ञेयमां क्यांय राग–द्वेष करी अटकवुं तेवो मारो ज्ञानस्वभाव नथी. पर
गमे तेम हो, हुं तो तेनो मात्र जाणनार छुं, मारो जाणनार स्वभाव परनुं कांई करनार नथी. हुं जेम
ज्ञानस्वभावी छुं तेम जगतना बधा आत्माओ ज्ञानस्वभावी छे, तेओ पोते पोताना ज्ञानस्वभावनो निर्णय
चूकया छे तेथी दुःखी छे, तेओ जाते निर्णय करे तो तेओनुं दुःख टळे. हुं कोईने फेरववा समर्थ नथी. पर जीवोनुं
दुःख हुं टाळी