: श्रावण : २००१ : आत्मधर्म : १८१ :
शकुं नहि केमके दुःख तेओए पोतानी भूलथी कर्युं छे अने तेओ पोतानी भूल टाळे तो तेमनुं दुःख टळे. कोई
परना लक्षे अटकवानो ज्ञाननो स्वभाव नथी.
प्रथम श्रुतनुं अवलंबन बताव्युं तेमां पात्रता थई छे. एटले के श्रुतना अवलंबनथी आत्मानो अव्यक्त
निर्णय थयो छे, त्यारपछी प्रगट अनुभव केम थाय ते हवे कहे छे.
सम्यग्दर्शन पहेलांं श्रुतज्ञानना अवलंबनना जोरे आत्माना ज्ञानस्वभावने अव्यक्तपणे लक्षमां लीधो
छे, हवे प्रगटरूप लक्षमां ल्ये छे––अनुभव करे छे––आत्म साक्षात्कार अर्थात् सम्यग्दर्शन करे छे ते कई रीते?
तेनी वात मूके छे. “... पछी आत्मानी प्रगट प्रसिद्धिने माटे पर पदार्थनी प्रसिद्धिनां कारणो जे ईन्द्रिय अने
मनद्वारा प्रवर्तती बुद्धिओ तेमने मर्यादामां––लावीने जेणे मतिज्ञान तत्त्वने आत्म सन्मुख कर्युं छे एवो...”
अप्रगटरूप निर्णय थयो हतो ते हवे प्रगटरूप कार्य लावे छे. जे निर्णय कर्यो हतो तेनुं फळ प्रगटे छे.
आ निर्णय जगतना बधा आत्माओ करी शके छे. बधा आत्माओ परिपूर्ण भगवान ज छे, तेथी बधा
पोताना ज्ञान स्वभावनो निर्णय करी शकवा समर्थ छे. जे आत्मानुं करवा मागे तेने ते थई शके छे. परंतु
अनादिथी पोतानी दरकार करी नथी. भाईरे! तुं कोण वस्तु छो ते जाण्या विना तुं करीश शुं? पहेलांं आ ज्ञान
स्वभावी आत्मानो निर्णय करवो जोईए. ए निर्णय थतां अव्यक्तपणे आत्मानुं लक्ष आव्युं पछी परनुं लक्ष
अने विकल्पथी खसीने स्वनुं लक्ष प्रगटपणे अनुभवपणे केम करवुं ते बतावे छे.
आत्मानी प्रगट प्रसिद्धि माटे ईन्द्रिय अने मनथी जे पर लक्ष जाय छे तेने फेरवीने ते मतिज्ञानने स्वमां
एकाग्र करतां आत्मानुं लक्ष थाय छे एटले के आत्मानी प्रगटपणे प्रसिद्धि थाय छे; आत्मानो प्रगटरूप
अनुभव थवो ते ज सम्यग्दर्शन छे अने सम्यग्दर्शन ए ज धर्म छे.
(समयसार व्याख्यान, गाथा–१४४ राजकोट) ता. २६–११–४३.
धर्म माटे पहेलां शुं करवुं
आ कर्ताकर्म अधिकारनी छेल्ली गाथा छे, आ गाथामां जिज्ञासुने मार्ग बताव्यो छे. माणसो कहे छे के
आत्मानुं कांई न समजाय तो पुण्यना शुभभाव तो करवा के नहि? तेने उत्तर–प्रथम स्वभाव समजवो ते ज
धर्म छे. धर्म वडे ज संसारनो अंत छे, शुभभावथी धर्म थाय नहि अने धर्म वगर संसारनो अंत आवे नहि.
धर्म तो पोतानो स्वभाव छे, माटे पहेलांं स्वभाव समजवो जोईए.
प्रश्न:– स्वभाव न समजाय तो शुं करवुं? समजतां वार लागे अने एकाद भव थाय तो शुं अशुभ भाव
करीने मरी जवुं?
उत्तर:– प्रथम तो आ वात न समजाय एम बने ज नहि. समजतां वार लागे त्यां समजणना लक्षे
अशुभभाव टाळी शुभभाव करवानी ना नथी, परंतु शुभभावथी धर्म थतो नथी–एम जाणवुं. ज्यां सुधी कोई
पण जड वस्तुनी क्रिया अने रागनी क्रियाने जीव पोतानी माने त्यां सुधी साची समजणना मार्गे नथी.
सुखनो रस्तो साची समजण; विकारनुं फळ जड.
जो आत्मानी साची रुचि थाय तो समजणनो रस्तो लीधा वगर रहे नहि; सत्य जोईतुं होय, सुख
जोईतुं होय तो आ ज रस्तो छे. समजतां भले वार लागे, परंतु मार्ग तो साची समजणनो लेवो जोईए ने!
साची समजणनो मार्ग ल्ये तो सत्य समजाया वगर रहे ज नहि. जो आवा मनुष्य देहमां अने सत्समागमना
योगे पण सत्य न समजे तो फरी आवा टाणां सत्यना मळतां नथी. हुं कोण छुं तेनी जेने खबर नथी अने अहीं
ज स्वरूप चूकीने जाय छे ते ज्यां जशे त्यां शुं करशे? शांति क्यांथी लावशे? आत्माना भान वगर कदाच
शुभभाव कर्या होय तो पण ते शुभनुं फळ जडमां जाय छे, आत्मामां पुण्यनुं फळ आवतुं नथी. आत्मानी
दरकार करी नथी. अने अहींथी ज जे मूढ थई गयो छे तेणे कदाच शुभभाव कर्या तो रजकणो बंधाणा अने ते
रजकणोना फळमां पण रजकणोनो ज संयोग मळवानो, रजकणोनो संयोग मळे तेमां आत्माने शुं? आत्मानी
शांति तो आत्मामां छे परंतु तेनी तो दरकार करी नथी.
असाध्य कोण? अने शुद्धात्मा कोण?
अहीं ज जडनुं लक्ष करीने जड जेवो थई गयो छे, मरतां ज पोताने भूलीने संयोग द्रष्टिथी मरे छे,
असाध्यपणे वर्ते छे एटले चैतन्य स्वरूपनुं भान नथी ते जीवतां ज असाध्य ज छे. भले, शरीर हाले, चाले,
बोले, पण ए तो जडनी क्रिया छे, तेनो धणी थयो पण अंतरमां साध्य जे ज्ञानस्वरूप तेनी जेने खबर नथी ते
असाध्य [जीवतुं मडदुं] छे. वस्तुनो स्वभाव यथार्थपणे सम्यग्दर्शन पूर्वकना ज्ञानथी न समजे तो