Atmadharma magazine - Ank 023
(Year 2 - Vir Nirvana Samvat 2471, A.D. 1945)
(Devanagari transliteration).

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: १८२ : आत्मधर्म : श्रावण : २००१ :
जीवने स्वरूपनो किंचित लाभ नथी; सम्यक्दर्शन–ज्ञानवडे स्वरूपनी ओळखाण अने निर्णय करीने जे ठर्यो तेने
ज ‘शुद्ध आत्मा’ एवुं नाम मळे छे, अने शुद्धात्मा ए ज सम्यकदर्शन तथा सम्यग्ज्ञान छे. ‘हुं शुद्ध छुं’ एवो
विकल्प छूटीने एकलो आत्मअनुभव रही जाय ते ज सम्यक्दर्शन अने सम्यग्ज्ञान छे, सम्यग्दर्शन अने
सम्यग्ज्ञान ए कांई आत्माथी जुदां नथी.
सत्य जेने जोईतुं होय तेवा जिज्ञासु समजु जीवने कोई असत्य कहे तो ते असत्यनी हा पाडी दे नहि––
असत्नो स्वीकार न करे. जेने सत्स्वभाव जोईतो होय ते स्वभावथी विरुद्धभावनी हा न पाडे–तेने पोतानां न माने.
वस्तुनुं स्वरूप शुद्ध छे तेनो बराबर निर्णय कर्यो अने वृत्ति छूटी जतां जे अभेद शुद्ध अनुभव थयो ते ज समयसार
छे, अने तेज धर्म छे. आवो धर्म केवी रीते थाय, धर्म करवा माटे प्रथम शुं करवुं? ते संबंधी आ कथन चाले छे.
धर्मनी रुचिवाळा जीव केवा होय?
धर्मने माटे पहेलामां पहेला श्रुतज्ञाननुं अवलंबन लई श्रवण–मननथी ज्ञान स्वभावी आत्मानो निश्चय
करवो के हुं एक ज्ञान स्वभाव छुं, ज्ञान स्वभावमां ज्ञान सिवाय कांई करवा–मूकवानो स्वभाव नथी. आ
प्रमाणे सत समजवामां जे काळ जाय छे ते पण अनंतकाळे नहि करेलो एवो अपूर्व अभ्यास छे. जीवने सत्
तरफनी रुचि थाय एटले वैराग्य जागे अने आखा संसार तरफनी रुचि ऊडी जाय. चोराशीना अवतारनो
त्रास थई जाय के ‘आ त्रास शा? स्वरूपनुं भान नहि अने क्षणे क्षणे पराश्रय भावमां राचवुं आ ते कांई
मनुष्यनां जीवन छे? तिर्यंच वगेरेनां दुःखनी तो वात ज शी, परंतु आ मनुष्यमां पण आवा जीवन? अने
मरण टाणे स्वरूपना भान वगर असाध्य थईने मरवुं? ’ आ प्रमाणे संसारनो त्रास थतां स्वरूप समजवानी
रुचि थाय. वस्तु समजवा माटे जे काळ जाय ते पण ज्ञाननी क्रिया छे, सत्नो मार्ग छे.
जिज्ञासुओए प्रथम ज्ञान स्वभावी आत्मानो निर्णय करवो; हुं एक जाणनार छुं, मारूं स्वरूप ज्ञान छे,
ते जाणवावाळुं छे, पुण्य–पाप कोई मारा ज्ञाननुं स्वरूप नथी, पुण्य–पापना भाव के स्वर्ग नरक आदि कोई मारो
स्वभाव नथी––एम श्रुतज्ञानवडे आत्मानो प्रथम निर्णय करवो ते ज प्रथम उपाय छे.
उपादान – निमित्त अने कारण – कार्य
१–साचा श्रुतज्ञानना अवलंबन विना अने २–श्रुतज्ञानथी ज्ञानस्वभावी आत्मानो निर्णय कर्या विना
आत्मा अनुभवमां आवे नहि. आमां आत्मानो अनुभव करवो ते कार्य छे, आत्मानो निर्णय ते उपादान
कारण छे अने श्रुतनुं अवलंबन ते निमित्त छे. श्रुतना अवलंबनथी ज्ञानस्वभावनो जे निर्णय कर्यो तेनुं फळ,
ते निर्णय अनुसार आचरण अर्थात् अनुभव करवो ते छे. आत्मानो निर्णय ते कारण अने आत्मानो अनुभव
ते कार्य–ए रीते अहीं लीधुं छे, एटले जे निर्णय करे तेने अनुभव थाय ज एम वात करी छे.
अंतर अनुभवनो उपाय अर्थात् ज्ञानी क्रिया.
हवे, आत्मानो निर्णय कर्या पछी तेनो प्रगट अनुभव कई रीते करवो ते बतावे छे:– निर्णय अनुसार
श्रद्धानुं आचरण ते अनुभव छे. प्रगट अनुभवमां शांतिनुं वेदन लाववा माटे एटले आत्मानी प्रगट प्रसिद्धि
माटे पर पदार्थनी प्रसिद्धिना कारणने छोडी देवा जोईए. प्रथम ‘हुं ज्ञानानंद स्वरूपी आत्मा छुं’ एम निश्चय कर्या
पछी आत्माना आनंदनो प्रगट भोगवटो करवा
[–वेदन करवा–अनुभव करवा] माटे, पर पदार्थनी प्रसिद्धनां
कारणो–जे ईन्द्रिय अने मनद्वारा परलक्षे प्रवर्ततुं ज्ञान तेने स्व तरफ वाळवुं. देव–गुरु–शास्त्र वगेरे पर पदार्थ
तरफनुं लक्ष तथा मनना अवलंबने प्रवर्तती बुद्धि अर्थात् मतिज्ञान तेने संकोचीने–मर्यादामां लावीने पोता तरफ
वाळवुं ते अंतर अनुभवनो पंथ छे, सहज शीतळ स्वरूप अनाकुळ स्वभावनी छायामां पेसवानुं पगथियुं छे.
प्रथम आत्मा ज्ञान स्वभाव छुं एवो बराबर निश्चय करीने, पछी प्रगट अनुभव करवा माटे पर तरफ
वळता भाव जे मति अने श्रुतज्ञान तेमने स्व तरफ एकाग्र करवा, जे ज्ञान परमां विकल्प करीने अटके छे, ते
ज ज्ञानने, त्यांथी खसेडीने स्वभावमां वाळवुं. मति अने श्रुतज्ञानना जे भाव छे ते तो ज्ञानमां ज रहे छे,
परंतु पहेलांं ते पर तरफ वळतां, हवे तेने आत्म सन्मुख करतां स्वभावनुं लक्ष थाय छे. आत्माना स्वभावमां
एकाग्र थवाना आ क्रमसर पगथिया छे.
ज्ञानमां भव नथी.
जेणे मनना अवलंबने प्रवर्तता ज्ञानने मनथी छोडावी स्व तरफ वाळ्‌युं छे अर्थात् मतिज्ञान पर तरफ
वळतुं तेने मर्यादामां लईने आत्म सन्मुख कर्युं छे तेना ज्ञानमां अनंत संसारनो नास्तिभाव अने
ज्ञानस्वभावनो अस्तिभाव छे. आवी समजण अने आवुं ज्ञान करवुं