Atmadharma magazine - Ank 023
(Year 2 - Vir Nirvana Samvat 2471, A.D. 1945)
(Devanagari transliteration).

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: श्रावण : २००१ : आत्मधर्म : १८३ :
तेमां अनंत पुरुषार्थ छे. स्वभावमां भव नथी तेथी जेने स्वभाव तरफनो पुरुषार्थ ऊग्यो तेने भवनी शंका
रहेती नथी. ज्यां भवनी शंका छे त्यां साचुं ज्ञान नथी अने ज्यां साचुं ज्ञान छे त्यां भवनी शंका नथी–आ रीते
‘ज्ञान’ अने ‘भव’ नी एक बीजामां नास्ति छे.
पुरुषार्थ वडे सत्समागमथी एकला ज्ञान स्वभावी आत्मानो निर्णय कर्यो पछी ‘हुं अबंध छुं के बंधवाळो
छुं, शुद्ध छुं के अशुद्ध छुं, त्रिकाळ छुं के क्षणिक छुं’ एवी जे वृत्तिओ ऊठे तेमां पण हजी आत्मशांति नथी, ते
वृत्तिओ आकुळतामय–आत्मशांतिनी विरोधीनी छे. नयपक्षोना अवलंबनथी थता मन संबंधी अनेक प्रकारना
विकल्पो तेने पण मर्यादामां लावीने अर्थात् ते विकल्पोने रोकवाना पुरुषार्थ वडे श्रुतज्ञानने पण आत्मसन्मुख
करतां शुद्धात्मानो अनुभव थाय छे; आ रीते मति अने श्रुतज्ञानने आत्म सन्मुख करवा ते ज सम्यग्दर्शन छे.
ईन्द्रिय अने मनना अवलंबने मतिज्ञान पर लक्षे प्रवर्ततुं तेने, अने मनना अवलंबने श्रुतज्ञान अनेक प्रकारना
नय पक्षोना विकल्पोमां अटकतुं तेने–एटले के परावलंबने प्रवर्तता मतिज्ञान अने श्रुतज्ञानने मर्यादामां लावीने–
अंतर स्वभाव सन्मुख करीने, ते ज्ञानोद्वारा एक ज्ञान स्वभावने पकडीने
[लक्षमां लईने] निर्विकल्प थईने
तत्काळ निजरसथी ज प्रगट थता शुद्धात्मानो अनुभव करवो, ते अनुभव ज सम्यग्दर्शन अने सम्यग्ज्ञान छे.
आ रीते अनुभवमां आवतो शुद्धात्मा केवो छे ते कहे छे:– आदि–मध्य–अंत रहित त्रिकाळ एकरूप छे,
तेमां बंध–मोक्ष नथी अनाकुळता स्वरूप छे, ‘हुं शुद्ध छुं के अशुद्ध छुं’ एवा विकल्पथी थती जे आकुळता तेनाथी
रहित छे. लक्षमांथी पुण्य–पापनो आश्रय छूटीने एकलो आत्मा ज अनुभवरूप छे, केवळ एक आत्मामां पुण्य–
पापना कोई भावो नथी. जाणे के आखाय विश्व उपर तरतो होय एटले के समस्त विभावोथी जुदो थई गयो
होय तेवो चैतन्य स्वभाव छूटो अखंड प्रतिभासमय अनुभवाय छे. आत्मानो स्वभाव पुण्य–पापनी उपर
तरतो छे, तरतो एटले तेमां भळी जतो नथी, ते रूप थतो नथी परंतु तेनाथी छूटो ने छूटो रहे छे. अनंत छे
एटले के जेना स्वभावमां कदी अंत नथी, पुण्य–पाप तो अंतवाळा छे, ज्ञानस्वरूप अनंत छे; अने विज्ञानघन
छे–एकला ज्ञाननो ज पिंड छे. एकला ज्ञानपिंडमां राग–द्वेष जरापण नथी. रागनो अज्ञानभावे कर्ता हतो पण
स्वभाव भावे रागनो कर्ता नथी. अखंड आत्मस्वभावनो अनुभव थतां जे जे अस्थिरताना विभावो हता ते
बधाथी छूटीने ज्यारे आ आत्मा, विज्ञानघन एटले जेमां कोई विकल्पो प्रवेश करी शके नहि एवा ज्ञाननो
निवड पिंडरूप परमात्मस्वरूप समयसारने अनुभवे छे त्यारे ते पोते ज सम्यग्दर्शन स्वरूप छे.
निश्चय – अने – व्यवहार
आमां निश्चय–व्यवहार बंने आवी जाय छे. अखंड विज्ञानघन स्वरूप ज्ञानस्वभावी आत्मा ते निश्चय छे
अने परिणतिने स्वभाव सन्मुख करवी ते व्यवहार छे. मतिश्रुतज्ञानने स्वतरफ वाळवाना पुरुषार्थरूपी जे पर्याय
ते व्यवहार छे, अने अखंड आत्मस्वभाव ते निश्चय छे. ज्यारे मति–श्रुतज्ञानने स्व तरफ वाळ्‌या अने आत्मानो
अनुभव कर्यो ते ज वखते आत्मा सम्यकपणे देखाय छे–श्रद्धाय छे. आ सम्यग्दर्शन प्रगटवा वखतनी वात करी छे.
सम्यग्दर्शन थतां शुं थाय?
सम्यग्दर्शन थतां स्वरसनो अपूर्व आनंद अनुभवाय छे. आत्मानो सहज आनंद प्रगट थाय छे.
आत्मीक आनंदनो ऊछाळो आवे छे; अंतरमां आत्मशांतिनुं वेदन थाय छे. आत्मानुं सुख अंतरमां छे ते
अनुभववामां आवे छे; ए अपूर्व सुखनो रस्तो सम्यग्दर्शन ज छे. ‘हुं भगवान आत्मा समयसार छुं’ एम जे
निर्विकल्प शांतरस अनुभवाय छे ते ज समयसार अने सम्यग्दर्शन तथा सम्यग्ज्ञान छे. अहीं तो सम्यग्दर्शन
अने आत्मा बंने अभेद लीधा छे. आत्मा पोते सम्यग्दर्शन स्वरूप छे.
वारंवार ज्ञानमां एकाग्रतानो अभ्यास करवो.
सौथी पहेलांं आत्मानो निर्णय करीने पछी अनुभव करवानुं कह्युं छे–पहेलामां पहेला, ‘निश्चय
ज्ञानस्वरूप छुं, बीजुं कांई रागादि मारूं स्वरूप नथी’ एवो निर्णय ज्यां सुधी न थाय त्यां सुधी साचा श्रुतज्ञानने
ओळखीने तेनो परिचय करवो, सत्श्रुतना परिचयथी ज्ञानस्वभावी आत्मानो निर्णय कर्या पछी मति–श्रुतज्ञानने
ते ज्ञानस्वभाव तरफ वाळवानो प्रयत्न करवो, निर्विकल्प थवानो पुरुषार्थ करवो. आ ज प्रथमनो एटले के
सम्यक्त्वनो मार्ग छे. आमां तो वारंवार ज्ञानमां एकाग्रतानो अभ्यास ज करवानो छे, बहारमां कांई करवानुं न
आव्युं पण ज्ञानमां ज समजण अने एकाग्रतानो प्रयास करवानुं आव्युं. ज्ञानमां अभ्यास करतां करतां ज्यां
एकाग्र थयो त्यां ते ज वखते सम्यग्दर्शन अने सम्यग्ज्ञानरूपे आ आत्मा–प्रगट थाय छे. आ ज