रहेती नथी. ज्यां भवनी शंका छे त्यां साचुं ज्ञान नथी अने ज्यां साचुं ज्ञान छे त्यां भवनी शंका नथी–आ रीते
‘ज्ञान’ अने ‘भव’ नी एक बीजामां नास्ति छे.
वृत्तिओ आकुळतामय–आत्मशांतिनी विरोधीनी छे. नयपक्षोना अवलंबनथी थता मन संबंधी अनेक प्रकारना
विकल्पो तेने पण मर्यादामां लावीने अर्थात् ते विकल्पोने रोकवाना पुरुषार्थ वडे श्रुतज्ञानने पण आत्मसन्मुख
करतां शुद्धात्मानो अनुभव थाय छे; आ रीते मति अने श्रुतज्ञानने आत्म सन्मुख करवा ते ज सम्यग्दर्शन छे.
ईन्द्रिय अने मनना अवलंबने मतिज्ञान पर लक्षे प्रवर्ततुं तेने, अने मनना अवलंबने श्रुतज्ञान अनेक प्रकारना
नय पक्षोना विकल्पोमां अटकतुं तेने–एटले के परावलंबने प्रवर्तता मतिज्ञान अने श्रुतज्ञानने मर्यादामां लावीने–
अंतर स्वभाव सन्मुख करीने, ते ज्ञानोद्वारा एक ज्ञान स्वभावने पकडीने
रहित छे. लक्षमांथी पुण्य–पापनो आश्रय छूटीने एकलो आत्मा ज अनुभवरूप छे, केवळ एक आत्मामां पुण्य–
पापना कोई भावो नथी. जाणे के आखाय विश्व उपर तरतो होय एटले के समस्त विभावोथी जुदो थई गयो
होय तेवो चैतन्य स्वभाव छूटो अखंड प्रतिभासमय अनुभवाय छे. आत्मानो स्वभाव पुण्य–पापनी उपर
तरतो छे, तरतो एटले तेमां भळी जतो नथी, ते रूप थतो नथी परंतु तेनाथी छूटो ने छूटो रहे छे. अनंत छे
एटले के जेना स्वभावमां कदी अंत नथी, पुण्य–पाप तो अंतवाळा छे, ज्ञानस्वरूप अनंत छे; अने विज्ञानघन
छे–एकला ज्ञाननो ज पिंड छे. एकला ज्ञानपिंडमां राग–द्वेष जरापण नथी. रागनो अज्ञानभावे कर्ता हतो पण
स्वभाव भावे रागनो कर्ता नथी. अखंड आत्मस्वभावनो अनुभव थतां जे जे अस्थिरताना विभावो हता ते
बधाथी छूटीने ज्यारे आ आत्मा, विज्ञानघन एटले जेमां कोई विकल्पो प्रवेश करी शके नहि एवा ज्ञाननो
ते व्यवहार छे, अने अखंड आत्मस्वभाव ते निश्चय छे. ज्यारे मति–श्रुतज्ञानने स्व तरफ वाळ्या अने आत्मानो
अनुभव कर्यो ते ज वखते आत्मा सम्यकपणे देखाय छे–श्रद्धाय छे. आ सम्यग्दर्शन प्रगटवा वखतनी वात करी छे.
अनुभववामां आवे छे; ए अपूर्व सुखनो रस्तो सम्यग्दर्शन ज छे. ‘हुं भगवान आत्मा समयसार छुं’ एम जे
निर्विकल्प शांतरस अनुभवाय छे ते ज समयसार अने सम्यग्दर्शन तथा सम्यग्ज्ञान छे. अहीं तो सम्यग्दर्शन
अने आत्मा बंने अभेद लीधा छे. आत्मा पोते सम्यग्दर्शन स्वरूप छे.
ओळखीने तेनो परिचय करवो, सत्श्रुतना परिचयथी ज्ञानस्वभावी आत्मानो निर्णय कर्या पछी मति–श्रुतज्ञानने
ते ज्ञानस्वभाव तरफ वाळवानो प्रयत्न करवो, निर्विकल्प थवानो पुरुषार्थ करवो. आ ज प्रथमनो एटले के
सम्यक्त्वनो मार्ग छे. आमां तो वारंवार ज्ञानमां एकाग्रतानो अभ्यास ज करवानो छे, बहारमां कांई करवानुं न
आव्युं पण ज्ञानमां ज समजण अने एकाग्रतानो प्रयास करवानुं आव्युं. ज्ञानमां अभ्यास करतां करतां ज्यां