ज्ञानी अने अज्ञानीमां आकाश पाताळ जेटलो महान तफावत छे
आत्मा पोताना उपयोगने ज करी शके छे, पर द्रव्यनुं कांई पण करी ज शकतो नथी–ए सिद्धांतने श्री
समयसारजीना कर्ताकर्म अधिकारमां अत्यंत स्पष्ट अने सचोट रीते बहुज सुंदर समजाववामां आवेल छे–त्यां कह्युं छे
के:–
१– [गाथा ८६ भावार्थ:–] “आत्मा पोताना ज परिणामने करतो प्रतिभासो; पुद्गलना परिणामने करतो
तो कदी न प्रतिभासो. आत्मानी अने पुद्गलनी–बन्नेनी क्रिया एक आत्मा ज करे छे एम माननारा मिथ्याद्रष्टि छे.
जड–चेतननी एक क्रिया होय तो सर्व द्रव्यो पलटी जवाथी सर्वनो लोप थई जाय–ए मोटो दोष उपजे.” [पानुं–१२६]
२– [कलश प३ भावार्थ:–] बे वस्तुओ छे ते सर्वथा भिन्न ज छे, प्रदेशभेदवाळी ज छे. बन्ने एक थईने
परिणमती नथी, एक परिणामने उपजावती नथी अने तेमनी एक क्रिया होती नथी–एवो नियम छे. जो बे द्रव्यो एक
थईने परिणमे तो सर्व द्रव्योनो लोप थई जाय.”
[कलश प४ अर्थ:–] “एक द्रव्यना बे कर्ता न होय वळी एक द्रव्यनां बे कर्म न होय अने एक द्रव्यनी बे क्रिया
न होय, कारणके एक द्रव्य अनेक द्रव्यरूप थाय नहि.” [पानुं–१२७]
३– [कलश–प६ अर्थ:–] “आत्मा तो सदा पोताना भावोने करे छे अने परद्रव्य परना भावोने करे छे; कारण के
पोताना भावो छे ते तो पोते ज छे अने परना भावो छे ते पर ज छे (ए नियम छे).” [पानुं–१२८]
४– [कलश–६१–अर्थ:–] “आ रीते खरेखर पोताने अज्ञानरूप के ज्ञानरूप करतो पोताना ज भावोनो जीव
कर्ता छे, परभावनो (पुद्गलना भावोनो) कर्ता तो कदी नथी.”
[कलश ६२–अर्थ:–] “आत्मा ज्ञानस्वरूप छे. पोते ज्ञान ज छे; ते ज्ञान सिवाय बीजुं शुं करे? आत्मा
परभावनो कर्ता छे एम मानवुं (तथा कहेवुं) ते व्यवहारी जीवोनो मोह (अज्ञान) छे.” (पानुं–१४३)
आ रीते जीव परनी क्रिया करी शकतो नथी, पण पोतानी क्रियानो ज जीव कर्ता छे. –जीव पोते कई क्रिया करी
शके अने कई क्रिया न करी शके ए जो ते जाणे तो, ––पर द्रव्यनी कोई क्रिया पोते नहि करी शकतो होवाथी, –पर द्रव्यना
कर्तृत्वपणानो महा अहंकार टळे, अने पोतानी परिणाम क्रियाने जोतां शीखे, ज्यारे जीव पोतानी परिणाम क्रियाने
जोतां शीखे त्यारे पोतानां जे परिणामोथी पोताने नुकसान थतुं जाणे ते परिणामोने छोडे अने पोतानां जे
परिणामोथी पोताने लाभ थतो जाणे ते परिणामोने आदरे; अने एम करतां दुःख टळीने सुख थाय. परंतु ज्यां सुधी
जीव पोते शुं करी शके छे अने शुं करी शकतो नथी–ए न जाणे त्यां सुधी ते पोताना सुखनो साचो उपाय करी शके नहि.
आ संबंधमां पू. गुरुदेवश्री अनेक वखत भार दईने कहे छे के–
१–अनादिथी मांडीने आज सुधी कोई पर जीवने के जडने किंचित् मात्र लाभ के नुकशान तें कर्युं ज नथी.
२–आज सुधी कोई पर जीवे के जडे तने किंचित् मात्र लाभ के नुकशान कर्युं ज नथी.
३–आज सुधी तें तारा माटे सतत् एकलो नुकशाननो ज धंधो कर्यो छे, अने ज्यां सुधी तुं साची समजण नहि
कर त्यां सुधी ते नुकशाननो धंधो चालशे ज.
४–तें जे नुकशान कर्युं छे ते नुकशान तारी क्षणिक अवस्थामां थयुं छे–तारी त्रिकाळी वस्तुमां थयुं नथी.
प–तारी चैतन्य वस्तु ध्रुव अविनाशी छे, ते स्वभाव तरफ लक्ष कर तो शुद्धता प्रगटे अने अशुद्धता टळे–एटले
नुकशान टळे अने अटळ लाभ थाय.
उपरना पांच बोलोमां महान सिद्धांत रहेलो छे. जीव अनादिथी आज सुधी रखडयो–तेमां तेणे शुं कर्युं अने हवे
शुं करे तो ते रखडपट्टी टळे ए उपरना बोलोमां बताव्युं छे. मुमुक्षु जीवोए ए पांचे बोलोने हृदयमां निरंतर कोतरी
राखवा जोईए–अने तेनुं स्वरूप बराबर समजवुं जोईए. श्री जैन स्वाध्याय मंदिरमां जे सिद्धांत–सूत्रो चोडेलां छे तेमां
पण एकसिद्धांत छे के–“चैतन्य पदार्थनी क्रिया चैतन्यमां होय–जडमां न होय.”
वळी आ बाबत आत्मधर्मना प्रथम वर्षना त्रीजा अंकमां एवी मतलबे लख्युं छे के –“कोई आत्मा ज्ञानी के
अज्ञानी–एक परमाणु मात्रने हलाववानुं सामर्थ्य धरावतो नथी, तो पछी देहादिनी क्रिया आत्माना
हाथमां क्यांथी होय? ज्ञानीने अज्ञानीमां आकाश–पाताळना अंतर जेवडो महान तफावत छे, अने ते ए
छे के–अज्ञानी परद्रव्योनो तथा राग–द्वेषनो कर्ता थाय छे. अने ज्ञानी पोताने शुद्ध अनुभवतो थको तेमनो
कर्ता थतो नथी. ते कर्तृत्वपणानी मान्यता छोडवानो महा पुरुषार्थ दरेक जीवे करवानो छे. ते कर्तृत्व बुद्धि
सम्यकज्ञान विना छूटशे नहि–माटे तमे ज्ञान करो! ”