: श्रावण : २००१ : आत्मधर्म : १७३ :
परम पूज्य सद्गुरुदेवश्री कानजी स्वामीनां व्याख्यानमांथी
व्यख्यन समयसर
२० – ४ – ४प गाथा १४२
सम्यग्दर्शन शुं अने तेने कोनुं अवलंबन
सम्यग्दर्शन पोते आत्माना श्रद्धा गुणनी निर्विकारी पर्याय छे. अखंड आत्माना लक्षे सम्यग्दर्शन प्रगटे
छे; सम्यग्दर्शनने कोई विकल्पनुं अवलंबन नथी, पण निर्विकल्प स्वभावना अवलंबने सम्यग्दर्शन प्रगटे छे.
आ सम्यग्दर्शन ज आत्माना सर्व सुखनुं कारण छे. ‘हुं ज्ञान स्वरूप आत्मा छुं, बंध रहित छुं’ आवो विकल्प
करवो ते पण शुभराग छे, ते शुभरागनुं अवलंबन पण सम्यग्दर्शनने नथी; ते शुभ विकल्पने अतिक्रमतां
सम्यक्दर्शन थाय छे. सम्यक्दर्शन पोते राग अने विकल्प रहित निर्मळ गुण छे तेने कोई विकारनुं अवलंबन
नथी–पण आखा आत्मानुं अवलंबन छे––आखा आत्माने ते स्वीकारे छे.
एकवार विकल्प रहित थईने अखंड ज्ञायक स्वभावने लक्षमां लीधो त्यां सम्यक्भान थयुं. अखंड
स्वभावनुं लक्ष ए ज स्वरूपनी शुद्धि माटे कार्यकारी छे. अखंड सत्य स्वरूपने जाण्या विना––श्रद्धा कर्या विना,
‘हुं ज्ञानस्वरूप आत्मा छुं, अबद्धस्पृष्ट छुं’ ए वगेरे विकल्पो पण स्वरूपनी शुद्धि माटे कार्यकारी नथी. एकवार
अखंड ज्ञायक स्वभावनुं लक्ष कर्युं पछी जे वृत्ति ऊठे ते वृत्तिओ अस्थिरतानुं कार्य करे परंतु ते स्वरूपने रोकवा
समर्थ नथी, केमके श्रद्धामां तो वृत्ति–विकल्प रहित स्वरूप छे तेथी वृत्ति ऊठे ते श्रद्धा फेरवी शके नहि... जो
विकल्पमां ज अटकी जाय तो ते मिथ्याद्रष्टि छे. विकल्प रहित थईने अभेदनो अनुभव करवो तेज सम्यग्दर्शन छे
अने तेज समयसार छे–एम गाथामां कहे छे:–
कम्मं बद्धमबद्धं जीवे एवं तु जाण णयपक्खं।
पक्खातिक्कंतो पुण भण्णदि जो सो समयसारो।। १४२।।
छे कर्म जीवमां बद्ध वा अणबद्ध ए नयपक्ष छे;
पण पक्षथी अतिक्रांत भाख्यो ते ‘समयनो सार’ छे. १४२.
‘आत्मा कर्मथी बंधायेलो छे के आत्मा कर्मथी बंधायेलो नथी’ एवा बे प्रकारना भेदना विचारमां रोकावुं
ते तो नयनो पक्ष छे; ‘हुं आत्मा छुं, परथी जुदो छुं’ एवो विकल्प ते पण राग छे, ए रागनी वृत्तिने–नयना
पक्षने ओळंगे तो सम्यग्दर्शन प्रगटे. “हुं बंधायेलो छुं अथवा हुं बंध रहित मुक्त छुं” एवी विचार श्रेणीने
ओळंगी जईने जे आत्मानो अनुभव करे छे ते ज सम्यग्द्रष्टि छे अने ते ज समयसार अर्थात् शुद्धात्मा छे.
‘हुं अबंध छुं, बंध मारूं स्वरूप नथी’ एवा भंगनी विचार श्रेणीना कार्यमां अटके तो अज्ञानी छे, अने
ते भंगना विचारने ओळंगीने अभंग स्वरूपने स्पर्शी लेवुं [अनुभवी लेवुं] ते ज पहेलो आत्मधर्म एटले के
सम्यक्दर्शन छे. ‘हुं पराश्रय रहित, अबंध, शुद्ध छुं’ एवा निश्चयनयना पडखांनो विकल्प ते राग छे, अने ते
रागमां रोकाय [रागने ज सम्यग्दर्शन मानी ल्ये पण रागरहित स्वरूपने न अनुभवे] तो ते मिथ्याद्रष्टि छे.
भेदना विकल्प आवे खरा छतां तेनाथी सम्यग्दर्शन नथी.
अनादिथी आत्मस्वरूपनो अनुभव नथी, परिचय नथी, तेथी आत्मानो अनुभव करवा जतां पहेलांं ते
संबंधी विकल्प आव्या वगर रहेता नथी. अनादिथी आत्माना स्वरूपनो अनुभव नथी तेथी वृत्तिओनुं उत्थान
थाय छे के–हुं आत्मा कर्मना संबंधवाळो छुं के कर्मना संबंध वगरनो छुं, आम बे नयोना बे विकल्प उठे छे;
परंतु... ‘कर्मना संबंधवाळो के कर्मना संबंध वगरनो एटले के बद्ध छुं के अबद्ध छुं’ एवा बे प्रकारना भेदनो
पण एक स्वरूपमां क्यां अवकाश छे? स्वरूप तो नय पक्षनी अपेक्षाओथी पार छे. एक प्रकारना स्वरूपमां बे
प्रकारनी अपेक्षाओ नथी. हुं शुभाशुभ भावरहित छुं एवा विचारमां अटकवुं ते पण पक्ष छे, तेनाथी पण पेले
पार स्वरूप छे, स्वरूप तो पक्षातिक्रांत छे, ए ज सम्यग्दर्शननो विषय छे एटले के तेना ज लक्षे सम्यग्दर्शन
प्रगट थाय छे, ते सिवाय बीजो कोई सम्यग्दर्शननो उपाय नथी.
सम्यग्दर्शननुं स्वरूप शुं? देहनी कोई क्रियाथी तो सम्यग्दर्शन नथी, जड कर्मोथी नथी, अशुभ राग के
शुभराग थाय तेना लक्षे पण सम्यग्दर्शन नहि अने ‘हुं पुण्य–पापना परिणामोथी रहित ज्ञायक स्वरूप छुं.’