भेदना विचारमां अटक्यो छे, परंतु स्वरूप तो ज्ञाताद्रष्टा छे तेनो अनुभव ते ज सम्यग्दर्शन छे. भेदना
विचारमां अटकवुं ते सम्यग्दर्शननुं स्वरूप नथी.
आत्मस्वभाव तो अबंध ज छे, परंतु ‘हुं अबंध छुं’ एवा विकल्पने पण छोडीने निर्विकल्प ज्ञाताद्रष्टा निरपेक्ष
स्वभावनुं लक्ष करतां ज सम्यग्दर्शन प्रगटे छे.
सुख नथी अने ‘शुभराग रहित मारूं स्वरूप छे’ एवा भेदना विचारमां पण तारूं सुख नथी, माटे ते भेदना
विचारमां अटकवुं ते पण अज्ञानीनुं कार्य छे. अने ते नय–पक्षना भेदनुं लक्ष मूकी दईने अभेद ज्ञाता स्वभावनुं
लक्ष करवुं तेज सम्यग्दर्शन छे अने तेमां ज सुख छे. अभेद स्वभावनुं लक्ष कहो, ज्ञाता स्वरूपनो अनुभव कहो,
सुख कहो, धर्म कहो के सम्यग्दर्शन कहो–ते आ ज छे.
लई जाय पण छेवटे तो मोटरमांथी उतरीने जाते अंदर जवुं पडे. तेवी रीते नय–पक्षना विकल्पो रूपी मोटर गमे
तेटली दोडावे, ‘हुं ज्ञायक छुं, अभेद छुं, शुद्ध छुं’ एवा विकल्प करे तो पण ते विकल्प स्वरूपना आंगणा सुधी
लई जवाय, परंतु स्वरूपनो अनुभव करवा टाणे तो ते बधा विकल्प छोडी ज देवा पडे. विकल्प राखीने
स्वरूपनो अनुभव थई शके नहि. नय पक्षोनुं ज्ञान ते स्वरूपना आंगणे आववा माटे जरूरनुं छे. “हुं स्वाधीन
ज्ञान स्वरूपी आत्मा छुं, कर्मो जड छे, जड कर्मो मारा स्वरूपने रोकी शके नहि, हुं विकार करूं तो कर्मोने निमित्त
कांई न करूं, जड मारूं कांई न करे, राग–द्वेष थाय छे ते कर्म करावतुं नथी तेम ज पर वस्तुमां थता नथी पण
मारी अवस्थामां थाय छे, ते रागद्वेष मारो स्वभाव नथी, निश्चयथी मारो स्वभाव राग रहित ज्ञान स्वरूप
छे.” आ प्रमाणे बधां पडखांनुं (नयोनुं) ज्ञान पहेलांं करवुं जोईए, परंतु आटलुं करे त्यां सुधी पण भेदनुं लक्ष
छे, भेदना लक्षथी अभेद आत्म स्वरूपनो अनुभव थतो नथी, छतां पहेलांं ते भेद जाणवा जोईए. एटलुं जाणे
त्यारे ते स्वरूपना आंगणां सुधी आव्यो छे. पछी ज्यारे अभेदनुं लक्ष करे त्यारे भेदनुं लक्ष छूटी जाय अने
स्वरूपनुं अनुभवन थाय एटले के अपूर्व सम्यग्दर्शन प्रगटे. आ रीते जो के स्वरूपमां ढळता पहेलांं नय–पक्षना
विचारो होय छे खरा, परंतु ते नय–पक्षना कोईपण विचारो स्वरूपना अनुभवमां मददगार पण नथी.
साथे रहेतुं जे सम्यग्ज्ञान छे तेनो संबंध निश्चय–व्यवहार बंने साथे छे एटले के निश्चय–अखंड स्वभावने तथा
व्यवहारमां पर्यायना जे भंग–भेद पडे छे ते बधाने सम्यग्ज्ञान जाणी ले छे.