: श्रावण : २००१ : आत्मधर्म : १७५ :
ज सम्यग्दर्शनने मान्य छे. (अभेद वस्तुनुं लक्ष करतां जे निर्मळ पर्याय प्रगटी ते सामान्य वस्तु साथे अभेद
थई जाय छे) सम्यग्दर्शन रूप जे पर्याय छे तेने पण सम्यग्दर्शन स्वीकारतुं नथी. एक समयमां अभेद परिपूर्ण
द्रव्य ते ज सम्यग्दर्शनने मान्य छे, एकला आत्माने सम्यग्दर्शन प्रतीतमां ल्ये छे... परंतु सम्यग्दर्शन साथे
प्रगटयुं सम्यग्ज्ञान सामान्यविशेष सर्वने जाणे छे. सम्यग्ज्ञान छे ते पर्यायने अने निमित्तने पण जाणे छे.
सम्यग्दर्शनने पण जाणनारूं तो सम्यग्ज्ञान ज छे.
श्रद्धा अने ज्ञान क्यारे सम्यक थयां?
उदय, उपशम, क्षयोपशम के क्षायकभाव ए कोई सम्यग्दर्शननो विषय नथी केमके ते बधी पर्याय छे.
सम्यग्दर्शननो विषय परिपूर्ण द्रव्य छे ते पर्यायने सम्यग्दर्शन स्वीकारतुं नथी, एकली वस्तुनुं ज्यारे लक्ष कर्युं त्यारे
श्रद्धा सम्यक् थई, परंतु ज्ञान सम्यक क्यारे थयुं? ज्ञाननो स्वभाव सामान्य–विशेष सर्वने जाणवानो छे. ज्यारे
ज्ञाने आखा द्रव्यने, उघडेली पर्यायने अने विकारने जेम छे तेम जाणीने, ‘परिपूर्ण स्वभाव ते हुं, विकार रह्यो ते हुं
नहि’ एम विवेक कर्यो त्यारे ते सम्यक थयुं छे. सम्यग्दर्शनरूप उघडेली पर्यायने (१) अने सम्यग्दर्शनना
विषयभूत परिपुर्ण वस्तुने (२) अने अवस्थानी ऊणपने (३) ए त्रणेने जेम छे तेम सम्यग्ज्ञान जाणे छे.
अवस्थानो स्वीकार ज्ञानमां छे. आ रीते सम्यक् दर्शन तो एक निश्चयने ज [अभेद स्वरूपने ज] स्वीकारे छे, अने
सम्यग्दर्शननुं अविनाभावी [साथे ज रहेतुं] सम्यग्ज्ञान निश्चय अने व्यवहार बंनेने बराबर जाणीने विवेक करे
छे, जो निश्चय व्यवहार बंनेने न जाणे तो ज्ञान प्रमाण (सम्यक्) थतुं नथी. जो व्यवहारनुं लक्ष करे तो द्रष्टि खोटी
ठरे छे अने जो व्यवहारने जाणे ज नहि तो ज्ञान खोटुं ठरे छे. ज्ञान निश्चय–व्यवहारनो विवेक करे छे तेथी ते सम्यक
छे अने द्रष्टि व्यवहारनुं लक्ष छोडीने निश्चयने अंगीकार करे तो ते सम्यक् छे.
सम्यग्दर्शनो विषय शुं? – मोक्षनुं परमार्थ कारण कोण?
सम्यग्दर्शनना विषयमां मोक्षपर्याय अने द्रव्य एवा भेद ज नथी, द्रव्य ज परिपुर्ण छे ते सम्यग्दर्शनने
मान्य छे. बंध–मोक्ष पण सम्यग्दर्शनने मान्य नथी. बंध–मोक्षनी पर्याय, साधक दशाना भंग भेद ए बधाने
सम्यग्ज्ञान जाणे छे.
सम्यग्दर्शननो विषय परिपुर्ण द्रव्य छे ते ज मोक्षनुं परमार्थ कारण छे. पंचमहाव्रतादिने के विकल्पने
मोक्षनुं कारण कहेवुं ते तो स्थूळ व्यवहार छे, अने सम्यक्दर्शन ज्ञानचारित्ररूप साधक अवस्थाने मोक्षनुं कारण
कहेवुं ते पण व्यवहार छे केमके ते साधक अवस्थानो पण ज्यारे अभाव थाय छे त्यारे मोक्षदशा प्रगटे छे, एटले
ते पण अभावरूप कारण छे माटे व्यवहार छे.
त्रिकाळी अखंड वस्तु छे ते ज मोक्षनुं निश्चय कारण छे. परंतु परमार्थे तो वस्तुमां कारण–कार्यना भेद
पण नथी, कार्य–कारणना भेद पण व्यवहार छे. एक अखंड वस्तुमां कार्य–कारणना भेदना विचारथी विकल्प
आवे छे तेथी ते पण व्यवहार छे; छतां व्यवहारपणे पण कार्य–कारण एवा भेद छे खरा, जो कार्य–कारण भेद
सर्वथा न ज होय तो मोक्ष दशा प्रगटाववानुं पण कही शकाय नहि. एटले अवस्थामां साधक–साध्यना भेद छे,
परंतु अभेदना लक्ष वखते व्यवहारनुं लक्ष होय नहि केमके व्यवहारना लक्षमां भेद आवे छे अने भेदना लक्षे
परमार्थ–अभेद स्वरूप लक्षमां आवतुं नथी; तेथी सम्यग्दर्शनना लक्ष्यमां भेद आवतां नथी, एकरूप अभेद
वस्तु ज सम्यग्दर्शननो विषय छे.
सम्यग्दर्शन ए ज शांतिनो उपाय छे.
अनादिथी आत्माना अखंड रसने सम्यग्दर्शन वडे जाण्यो नथी एटले परमां अने विकल्पमां जीव रस
मानी रह्यो छे. पण हुं अखंड एक रूप स्वभाव छुं तेमां ज मारो रस छे, परमां क्यांय मारो रस नथी एम
स्वभाव द्रष्टिना जोरे एकवार बधाने निरस बनावी दे. शुभविकल्प ऊठे ते पण मारी शांतिनुं साधन नथी,
मारी शांति मारा स्वरूपमां छे, आम स्वरूपना रसना अनुभवमां समस्त संसारने निरस बनावी दे.–तने
सहजानंद स्वरूपना अमृतरसनी अपूर्व शांतिनो अनुभव प्रगट थशे. तेनो उपाय सम्यग्दर्शन ज छे.
संसारनो अभाव सम्यग्दर्शनथी ज थाय छे.
अनंतकाळथी अनंत जीवो संसारमां रखडे छे अने अनंतकाळमां अनंत जीवो सम्यग्दर्शनवडे पुर्ण
स्वरूपनुं भान करीने मुक्ति पाम्या छे. जीवोए संसारपक्ष तो अनादिथी ग्रहण कर्यो छे परंतु सिद्धनो पक्ष कदी
ग्रहण कर्यो नथी. हवे सिद्धनो पक्ष करीने, पोताना सिद्धस्वरूपने जाणीने संसारनो अभाव करवाना टाणां
आव्यां छे... अने तेनो उपाय एक मात्र सम्यग्दर्शन ज छे.