Atmadharma magazine - Ank 023
(Year 2 - Vir Nirvana Samvat 2471, A.D. 1945)
(Devanagari transliteration).

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: १७६ : आत्मधर्म : श्रावण : २००१ :
: जीज्ञासुए धर्म केवी रीते करवो? :
ता. ३–प–४प समयसार गाथा १४४, परम पूज्य सद्गुरुदेव श्री कानजी स्वामीनां याख्यानो
जे जीव जीज्ञासु थई स्वभाव समजवा आव्यो ते सुख लेवा आव्यो छे अने दुःख टाळवा आव्यो छे. सुख
पोतानो स्वभाव छे अने वर्तमानमां जे दुःख छे ते क्षणिक छे तेथी टळी शके छे. वर्तमान दुःख अवस्था टाळीने
सुखरूप अवस्था पोते प्रगट करी शके छे; आटलुं तो, जे सत् समजवा माटे आव्यो तेणे स्वीकारी ज लीधुं छे.
आत्माए पोताना भावमां पुरुषार्थ करी विकार रहित स्वरूपनो निर्णय करवो जोईए. वर्तमान विकार होवा छतां
विकार रहित स्वभावनी श्रद्धा करी शकाय छे एटले के आ विकार अने दुःख मारूं स्वरूप नथी एम नक्की थई शके छे.
पात्र जीवनुं लक्षण
जिज्ञासु जीवोने स्वरूपनो निर्णय करवा माटे पहेली ज ज्ञान क्रिया शास्त्रोए बतावी छे. स्वरूपनो निर्णय
करवा माटे बीजुं कांई दान, पूजा, भक्ति के व्रत–तपादि करवानुं कह्युं नथी, परंतु श्रतज्ञानथी आत्मानो निर्णय करवानुं
ज कह्युं छे. कुदेव–कुगुरु अने कुशास्त्र तरफनो आदर अने ते तरफनुं वलण तो खसी ज जवुं जोईए तथा विषयादि पर
वस्तुमां सुखबुद्धि टळी जवी जोईए, बधा तरफथी रुचि टळीने पोतानी तरफ रुचि वळवी जोईए अने देव, गुरु,
शास्त्रने यथार्थपणे ओळखी ते तरफ आदर करे अने आ बधुं जो स्वभावना लक्षे थयेल होय तो ते जीवने पात्रता थई
कहेवाय. आटली पात्रता ते हजी सम्यग्दर्शननुं मूळ कारण नथी, सम्यग्दर्शननुं मूळ कारण तो चैतन्य स्वभावनुं लक्ष
करवुं ते छे, परंतु प्रथम तो कुदेवादिनो सर्वथा त्याग तथा सत्देव–गुरु–शास्त्र अने सत्समागमनो प्रेम तो पात्र जीवोने
होय ज. एवा पात्र थयेला जीवोए आत्मानुं स्वरूप समजवा शुं करवुं ते आ समयसारजीमां स्पष्ट बताव्युं छे.
सम्यग्दर्शना उपाय माटे समयसारमां बतावेली क्रिया
“प्रथम, श्रुतज्ञानना अवलंबनथी ज्ञानस्वभावी आत्मानो निश्चय करीने, पछी आत्मानी प्रगट
प्रसिद्धिने माटे, पर पदार्थनी प्रसिद्धिना कारणो जे ईन्द्रियोद्वारा अने मनद्वारा प्रवर्तती बुद्धिओ तेमने मर्यादामां
लावीने जेणे मतिज्ञान तत्त्वने आत्मसन्मुख कर्युं छे एवो, तथा नाना प्रकारना पक्षोना आलंबनथी थतां अनेक
विकल्पो वडे आकुळता उत्पन्न करनारी श्रुतज्ञाननी बुद्धिओने पण मर्यादामां लावीने श्रुतज्ञान–तत्त्वने पण
आत्मसन्मुख करतो, अत्यंत विकल्प रहित थईने, तत्काळ...परमात्मारूप समयसारने ज्यारे आत्मा अनुभवे
छे ते वखते ज आत्मा सम्यक्पणे देखाय छे [अर्थात् श्रद्धाय छे] अने जणाय छे तेथी समयसार ज सम्यग्दर्शन
अने ज्ञान छे.” [समयसार गाथा–२४४ टीका] आ पारीग्राफ उपर स्पष्टीकरण थाय छे.
श्रुतज्ञान कोने कहेवुं.?
“प्रथम श्रुतज्ञानना अवलंबनथी ज्ञान स्वभावी आत्मानो निर्णय करवो” आम कह्युं छे. श्रुतज्ञान कोने
कहेवुं? सर्वज्ञ भगवाने कहेलुं श्रुतज्ञान अस्ति–नास्ति द्वारा वस्तु स्वरूपने सिद्ध करे छे, अनेकान्त स्वरूप
वस्तुने ‘स्वपणे छे अने परपणे नथी’ एम जे वस्तुने स्वतंत्र सिद्ध करे छे ते श्रुतज्ञान छे.
त्याग ते श्रुतज्ञानुं लक्षण नथी.
पर वस्तुने छोडवानुं कहे अथवा पर उपरना रागने घटाडवानुं कहे–ए कांई भगवाने कहेला श्रुतज्ञाननुं
लक्षण नथी. एक वस्तु पोतापणे छे अने ते वस्तु अनंत पर द्रव्योथी छूटी छे आम अस्ति–नास्तिरूप परस्पर
विरूद्ध बे शक्तिओने प्रकाशीने वस्तु स्वरूपने जे बतावे ते अनेकान्त छे अने ते ज श्रुतज्ञाननुं लक्षण छे. वस्तु
स्वपणे छे अने परपणे नथी–एमां वस्तु कायम सिद्ध करी छे.
श्रुतज्ञानुं वास्तविक लक्षण – अनेकान्त
एक वस्तुमां ‘छे’ अने ‘नथी’ एवी परस्पर विरूद्ध बे शक्तिओ जुदी जुदी अपेक्षाथी प्रकाशीने वस्तुनुं
परथी भिन्न स्वरूप बतावे छे. आ ज श्रुतज्ञान भगवाने कहेल शास्त्र छे. आ रीते, आत्मा सर्व परद्रव्योथी
जुदी वस्तु छे एम प्रथम श्रुतज्ञानथी नक्की करवुं जोईए.
अनंत परवस्तुथी आ आत्मा जुदो छे एम सिद्ध थतां हवे पोताना द्रव्य–पर्यायमां जोवानुं आव्युं. मारूं
त्रिकाळी द्रव्य ते एक समय पूरती अवस्थारूपे नथी. एटले के विकार क्षणिक पर्यायपणे छे परंतु त्रिकाळी
स्वरूपपणे विकार नथी––आम विकार रहित स्वभावनी सिद्धि पण अनेकांतवडे ज थाय छे. भगवानना कहेलां
सत्शास्त्रोनी महत्ता अनेकांतथी ज छे. भगवाने पर