Atmadharma magazine - Ank 024
(Year 2 - Vir Nirvana Samvat 2471, A.D. 1945)
(Devanagari transliteration).

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महान शास्त्र श्री जयधवला
(आ शास्त्रनी संक्षिप्त माहीति आपती १ थी ३३ कलमो
आत्मधर्म मासिकना अंक १७, १८, अने १९ मां आवेली छे.)
(३४) घटरूप अवस्थामां कपालोनी अने पटरूप अवस्थामां तन्तुओनी उपलब्धि नथी होती तेनुं
कारण घटनो प्रध्वंसाभाव कपाल छे, अने पटनो प्रागभाव तन्तु छे अर्थात् घटना फुटवाथी कपाल थाय छे,
अने पट बनवा पहेलांं तन्तु होय छे. ते कपाल अने तन्तु घट अने पटरूप कार्यने समये होय ज नहीं.
नोंध––आ सिद्धांत व्यवहार–निश्चय–मां नीचे प्रमाणे लागु पडे छे. व्यवहारनो अभाव (प्रध्वंसाभाव)
ते निश्चय. शुभ अने शुद्धमां पण तेवी ज रीते लागु पडे. शुभनो व्यय–अभाव–प्रध्वंसाभाव ते शुद्ध. निश्चय
पर्याय प्रगट्या पहेलांं व्यवहार पर्याय होय पण ते व्यवहार पर्याय ज त्यारे कहेवाय के व्यवहारनो अभाव थई
निश्चय प्रगटे. नहिं तो ते व्यवहाराभास छे.
* पा. ४८.
(३प) शंका–ईन्द्रिओथी उत्पन्न थवाने कारणे मतिज्ञान आदिने केवळज्ञान कही शकाय नहीं?
समाधान–नहीं, केमके जो ज्ञान ईन्द्रिओथी ज पेदा थाय छे एवुं मानी लेवामां आवे तो ईन्द्रिय व्यापार
पहेलांं जीवने गुण स्वरूप ज्ञाननो अभाव थई जवाथी गुणी जीवना पण अभावनो प्रसंग आवशे.
शंका–ईन्द्रिय व्यापार पहेलांं जीवमां ज्ञान सामान्य रहे छे पण ज्ञान विशेष (पर्यायरूपे) नहीं, तेथी
जीवनो अभाव प्राप्त थतो नथी.
समाधान–नहीं, केमके सद्भाव लक्षण सामान्यथी (अर्थात् ज्ञान सामान्यथी) ज्ञान विशेष पृथग्भूत होतुं नथी.
तेथी हमेशां द्रव्यमां रहेवावाळा ज्ञान अने दर्शन लक्षणवाळो जीव उत्पन्न थतो नथी, अने मरतो नथी, केमके जीवना
कारणभूत ज्ञान अने दर्शनने छोडया विना ज जीव एक पर्यायथी बीजी पर्यायमां संक्रमण करे छे. पानुं ४९–प०.
(३६) ईन्द्रिओथी ज जीवमां ज्ञान उत्पन्न थाय छे एम कहेवुं ठीक प्रतीत थतुं नथी केमके एवुं मानवाथी
अपर्याप्त काळमां ईन्द्रिओनो अभाव होवाथी, ज्ञानना अभावनो प्रसंग आवशे. ‘जो अपर्याप्त अवस्थामां
ज्ञाननो अभाव रहेतो होय तो भले रहो’ एम कहेवुं ठीक नथी. केमके जीवमां सदा रहेवावाळा अने तेना
अविनाभावी ज्ञान–दर्शननो अभाव मानवाथी जीवद्रव्यना पण विनाशनो प्रसंग आवशे.
पानुं प१.
(३७) शंका–ईन्द्रिओथी जीव द्रव्यनी उत्पत्ति भले न होय पण तेनाथी ज्ञाननी उत्पत्ति थाय छे एवुं तो
मानी लेवुं ज जोईए?
समाधान–नहीं, केमके जीवथी अतिरिक्त (जुदुं) ज्ञान होतुं नथी, तेथी ईन्द्रिओथी ज्ञान उत्पन्न थाय
छे, एम मानी लेवाथी तेनाथी जीवनी पण उत्पत्तिनो प्रसंग आवे छे. पा. प४
(३८) शंका–जो ईन्द्रिओथी जीवनी उत्पत्तिनो प्रसंग आवतो होय तो भले आवे.
समाधान–केमके अनेकांतात्मक, जात्यंतर भावने (जडथी जुदी जातीने) प्राप्त अने ज्ञान दर्शन
लक्षणवाळा जीवमां एकांतवादिओ द्वारा मानवामां आवेला सर्वथा उत्पाद, व्यय, अने ध्रुवत्वनो अभाव छे.
अर्थात् जीवनो न तो सर्वथा उत्पाद ज थई शके, न सर्वथा विनाश थई शके अने न सर्वथा ध्रुव ज छे तेथी
ईन्द्रिओथी तेनी उत्पत्ति थई शके नहिं.
पानुं पप.
(३९) जो एम कहेवामां आवे के जीव द्रव्य ईन्द्रिओनी अपेक्षाए (मतिज्ञानादिरूपे) परिणमन करे छे माटे तेने
ईन्द्रिओथी उत्पन्न थवावाळा ज्ञानमां केवळज्ञानपणुं अर्थात् असहाय ज्ञानपणुं बनी शकतुं नथी तो तेम कहेवुं पण ठीक
नथी, केमके एम मानवाथी जो के केवळज्ञान समस्त पर्यायरूप छे तो पण ते समस्त पदार्थोनी अपेक्षाए परिणमन करे
छे माटे तेने पण अकेवळज्ञानत्वनो प्रसंग आवी जशे. पानुं. पप
* निश्चय व्यवहार एक समये होय छे. ते
बे प्रकारे छे.
(१) पर्याय अपेक्षाए व्यवहारनो व्यय ते
निश्चयनो उत्पाद ए प्रकारे बन्ने एक समये छे.
(२)द्रव्य–सामान्य–ध्रुव अपेक्षाए–
आत्माना ध्रुव स्वभाव उपरनुं लक्ष ते ध्रुवपणुं
निश्रय अने प्रगटती शुद्ध पर्याय ते व्यवहार एम
बंने एक समये छे.
जोईए छीए.
संस्कृत तथा हींदी भाषाना अने जैन शास्त्रना
अभ्यासी–परम पूज्य सद्गुरु देवश्री कानजी स्वामीना
दररोजना व्याख्याननी नोंध तथा ब्रह्मचारीओने अभ्यास
कराववा माटे–पगार रूा. प० थी ७प मासिक लायकात मुजब
अरजी तुरत करो.
प्रमुख
श्री जैन स्वाध्याय मंदिर ट्रस्ट सोनगढ (काठि.)