: १८८ : आत्मधर्म : २४
पण जे आवा अवसरने व्यर्थ गुमावे छे तेमना उपर बुद्धिमान करुणा करी कहे छे के:–
प्रज्ञैव दुर्लभा सुष्ठु दुर्लभा सान्य जन्मने।
तां प्राप्य ये प्रमाद्यन्ति ते शोच्याः खलु धीमत्ताम्।।
(आत्मानुशासन ९४)
अर्थ:– संसारमां बुद्धि होवी ज दुर्ल्लभ छे, अने परलोक अर्थे बुद्धि थवी तो अति दुर्लभ छे. एवी बुद्धि प्राप्त
थया छतां जेओ प्रमाद करे छे ते जीवो विषे ज्ञानीओने शोच थाय छे.
तेथी जेने साचा जैनी थवुं छे तेणे तो शास्त्रना आश्रये तत्त्व निर्णय करवो योग्य छे; पण जे तत्त्व निर्णय तो
नथी करतो, अने पूजा, स्तोत्र, दर्शन त्याग तप, वैराग्य, संयम, संतोष आदि बधांय कार्यो करे छे, तेनां ए बधाय
कार्यो असत्य छे.
माटे आगमनुं सेवन, युक्तिनुं अवलंबन, परंपरा गुरुओनो उपदेश अने स्वानुभव द्वारा तत्त्व निर्णय करवो
योग्य छे. जिनवचन तो अपार छे, तेनो पार तो श्री गणधर देव पण पाम्या नहि माटे जे मोक्षमार्गनी प्रयोजनभूत
रकम छे ते तो निर्णय पूर्वक अवश्य जाणवा योग्य छे. कह्युं छे के:–
अन्तो णत्थि सुईणं कालो थोआवयं च दुम्मेहा।
तंणवर सिक्खियव्वं जिं जर मरणक्खयं कुणहि।।
(पाहुड दोहा ९८)
अर्थ:– श्रुतिओनो अंत नथी, काळ थोडो छे, अने अमे दुर्बुद्धि (अल्प बुद्धिवाळा) छीए माटे हे जीव! तारे तो
शीखवा योग्य ए छे के जेथी तुं जन्म मरणनो नाश करी शके.
आत्म हित माटे प्रथममां प्रथम सर्वज्ञनो निर्णय करवो.
तमारे जो पोतानुं भलुं करवुं छे तो सर्व आत्महितनुं मूळ कारण जे आप्त तेनो साचो स्वरूप–निर्णय करी ज्ञानमां
लावो. कारण सर्वे जीवोने सुख प्रिय छे, सुख भावकर्मोना नाशथी थाय छे, भाव कर्मनो नाश सम्यक् चारित्रथी थाय छे; सम्यक्
चारित्र सम्यग्दर्शन–ज्ञान पूर्वक थाय छे, सम्यग्ज्ञान आगमथी थाय छे, आगम कोई वीतराग पुरुषनी वाणीथी उपजे छे, अने
ए वाणी कोई वीतराग पुरुषना आश्रये छे, माटे जे सत्पुरुष छे तेमणे पोताना कल्याण अर्थे सर्व सुखनुं मूळ कारण जे आप्त–
अर्हंत सर्वज्ञ तेनो युक्ति पूर्वक सारी रीते सर्वथी प्रथम निर्णय करी आश्रय लेवो योग्य छे.
हवे जेनो उपदेश सांभळीए छीए, जेना कहेवा मार्ग उपर चालवा मागीए छीए, जेनी सेवा, पूजा,
आस्तिकयता, जाप, स्मरण, स्तोत्र, नमस्कार, अने ध्यान करीए छीए एवा जे अर्हंत सर्वज्ञ, तेमनुं प्रथम पोताना
ज्ञानमां स्वरूप तो भास्युं ज नथी तो तमे निश्चय कर्या विना कोनुं सेवन करो छो!
लोकमां पण आ प्रमाणे छे के अत्यंत निष्प्रयोजन वातनो पण निर्णय करी प्रवर्ते छे, अने आत्महितना मूळ
आधारभूत जे अर्हंतदेव तेनो निर्णय कर्या विना ज तमे प्रवर्तो छो ए मोटुं आश्चर्य छे!
वळी तमने निर्णय करवा योग्य ज्ञान पण प्राप्त थयुं छे माटे तमे आ अवसरने वृथा न गुमावो. आळस आदि छोडी
तेना निर्णयमां पोताने लगावो के जेथी तमने वस्तुनुं स्वरूप, जीवादिनुं स्वरूप, स्व–परनुं भेद विज्ञान, आत्मानुं स्वरूप,
हेय–उपादेय, अने शुभ–अशुभ–शुद्ध अवस्थारूप पोताना पद–अपदनुं स्वरूप ए बधानुं सर्व प्रकारथी यथार्थ ज्ञान थाय.
माटे सर्व मनोरथ सिद्ध करवानो उपाय जे अर्हंत–सर्वज्ञनुं यथार्थ ज्ञान जे प्रकारथी सिद्ध थाय ते प्रथम करवा योग्य छे.
सर्वथी प्रथम अर्हंत सर्वज्ञनो निर्णय करवा रूप कार्य करवुं ए ज श्री गुरुनी मूळ शिक्षा छे.
साचुं ज्ञान सम्यग्द्रष्टिने होय छे.
पोत–पोताना प्रकरणमां पोत पोताना ज्ञेय संबंधी साचा जाणपणानुं अल्प वा विशेष ज्ञान सर्वने होय छे,
कारण के लौकिक कार्य तो बधाय जीवो यथार्थ ज करे छे, तेथी लौकिक सम्यग्ज्ञान तो सर्व जीवोने थोडुं वा घणुं बनी ज
रह्युं छे. पण मोक्षमार्गमां प्रयोजनभूत जे आप्त आगम आदि पदार्थो तेनुं साचुं ज्ञान सम्यग्द्रष्टिने ज होय छे, तथा
सर्व ज्ञेयनुं ज्ञान केवळी भगवानने ज होय छे एम जाणवुं.
जिनमतनी आज्ञा
कोई कहे छे के: सर्वज्ञनी सत्तानो१ निश्चय अमाराथी न थयो तो शुं थयुं? ए देव तो साचा छे! माटे पूजनादि
करवां अफळ थोडा ज जाय छे! तेनो उत्तर–जो तमारी किंचित् मंद कषायरूप परिणति थशे तो पुण्यबंध तो थशे; परंतु
जिनमतमां तो देवना दर्शनथी आत्मदर्शन रूप
१. सत्ता=हैयाति, –होवापणुं, –Existence.