Atmadharma magazine - Ank 024
(Year 2 - Vir Nirvana Samvat 2471, A.D. 1945)
(Devanagari transliteration).

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भाद्रपद : २००१ : १८९ :
फळ थवुं कह्युं छे, ते तो नियमथी सर्वज्ञनी सत्ता जाणवाथी ज थशे, अन्य प्रकारथी नहि थाय; एज श्री
प्रवचनसारमां कह्युं छे.
वळी तमे लौकिक कार्योमां तो एवा चतुर छो के वस्तुनां सत्ता आदि निश्चय कर्या विना सर्वथा प्रवर्तता
नथी; अने अहीं तमे सत्ता निश्चय पण न करतां घेला अनध्यवसायी (निर्णय वगरना) थई प्रवर्तो छो ए
मोटुं आश्चर्य छे! श्री श्लोक वार्तिकमां कह्युं छे के:– जेनी सत्तानो निश्चय नथी थयो, तेनुं परीक्षावाळाए केवी
रीते स्तवन करवा योग्य छे? माटे तमे सर्व कार्योनी पहेलांं पोताना ज्ञानमां सर्वज्ञनी सत्ता सिद्ध करो ए ज
धर्मनुं मूळ छे तथा एज जिनमतनी आम्नाय छे.
आत्मकल्याणना अभिलाषीने भलामण
जेने आत्मकल्याण करवुं छे तेणे प्रथम जिनवचनना आगमनुं सेवन, युक्तिनुं अवलंबन, परंपरा
गुरुनो उपदेश तथा स्वानुभव ए द्वारा प्रमाण, नय, निक्षेप आदि उपायथी वचननुं सत्यपणुं पोताना ज्ञानमां
निर्णय करी पछी गम्यमान थयेलां सत्यरूप साधनना बळथी उत्पन्न थयेलुं जे अनुमान, तेनाथी सर्वज्ञनी सत्ता
सिद्ध करी, तेनां श्रद्धान, ज्ञान, दर्शन, पूजन, भक्ति, स्तोत्र अने नमस्कारादिक करवां योग्य छे.
पोतानुं भलुं बुरुं पोताना परिणामोथी ज थाय छे एम माननार भगवाननो साचो सेवक छे.
पोतानुं भलुं बूरुं थवुं पोताना परिणामोथी थाय छे एम जे माने छे अने ते रूपे पोते प्रवर्ते छे तथा
अशुद्ध कार्योने छोडे छे ते जिनदेवना साचा सेवक छे.
जेणे जिनदेवना साचा सेवक थवुं होय, वा जिनदेवे उपदेशेला मार्गरूप प्रवर्तवुं होय तेणे सर्वथी पहेलांं
जिनदेवना साचा स्वरूपनो पोताना ज्ञानमां निर्णय करी तेनुं श्रद्धान करवुं ए कर्तव्य छे.
अरिहंतोए शुं कर्युं अने शुं कह्युं?
परम पूज्य सद्गुरुदेव श्री कानजी स्वामीनां
ता. १८–८–४प ना व्याख्यानना आधारे
(मोक्षमार्ग प्रकाशक पानुं–३२७)
अरिहंतपणुं ते आत्मानी पूर्ण पवित्र दशा छे. शरीरमां के वाणीमां अरिहंतपणुं नथी, परंतु पोताना ज्ञानादि
गुणोनी पूर्ण प्रगट दशा थई गई ते पूर्ण दशामां ज अरिहंतपणुं छे. ते अरिहंतदशा प्रगटावनार आत्माओए पूर्वे शुं
कर्युं हतुं? कया उपाय करवाथी तेमने अरिहंतदशा प्रगटी हती, ते प्रथम जाणवानी जरूर छे.
जे जीवोने अरिहंतदशा प्रगटी छे ते जीवो पूर्वे संसार दशामां हता, पछी आत्मस्वभावनी यथार्थ रुचि
थतां साचा ज्ञानवडे पोतानुं परिपूर्ण आत्मस्वरूप तेओए जाण्युं अने साची श्रद्धा करी. “हुं शुद्ध स्वभावी
आत्मा छुं, परवस्तुथी हुं जुदो छुं, मारी शुद्धता मारा स्वभावना अवलंबनथी प्रगटे छे, पण परवस्तुथी मारी
शुद्ध दशा प्रगटती नथी, तथा राग थाय ते मारुं मूळ स्वरूप नथी, पर वस्तु मारुं कांई करती नथी अने हुं
परवस्तुनुं कांई करी शकतो नथी” आ प्रमाणे ते आत्माओए यथार्थपणे जाण्युं अने मान्युं. त्यारपछी ते ज
श्रद्धा अने ज्ञानने घूंटतां घूंटतां क्रमे क्रमे स्वभाव तरफनी स्थिरता वधती गई तेम तेम राग–द्वेष छूटतो गयो.
छेवटे परिपूर्ण पुरुषार्थ द्वारा संपूर्ण स्वरूप स्थिरता करीने ते आत्माओए वीतरागता अने केवळज्ञान प्रगट
कर्युं. संपूर्ण वीतरागता अने संपूर्ण ज्ञान ए ज आत्मानी अरिहंतदशा छे, आ रीते अरिहंतदशा प्रगट करनार
आत्माओए सर्वथी पहेलांं आत्मानी रुचिवडे साची श्रद्धा–ज्ञान कर्यां अने पछी स्थिरतावडे वीतरागता अने
संपूर्णज्ञानरूप अरिहंतदशा प्रगट करी. अरिहंतदशा प्रगट थतां पुर्वना पुण्यना कारणे दिव्यध्वनि छूटी–ते
दिव्यध्वनिमां भगवाने शुं कह्युं?
ए ध्यान राखवुं के दिव्यध्वनि ते अरिहंतभगवानना आत्मानो गुण नथी, पण जड परमाणुओनी अवस्था
छे. खरेखर ते दिव्यध्वनिनो कर्ता आत्मा नथी. आत्मा पोताना संपूर्ण ज्ञान अने वीतरागतानो कर्ता छे. दिव्यध्वनि
तो परमाणुओनी अवस्था छे. परंतु भगवाननी पूर्ण दशानुं निमित्त पामीने ते वाणीमां पण पुर्ण कथन आवे छे. जे
उपाय करवाथी भगवाने पोतानी पुर्ण अरिहंतदशा प्रगट करी ते उपायनुं कथन ते वाणीमां आवे छे. जेवो
आत्मस्वभाव पोते जाण्यो तेवा परिपूर्ण आत्मस्वभावनुं स्वरूप ते वाणीमां कह्युं छे अने ते स्वरूपनी प्राप्ति शुं
करवाथी थाय ते पण ते वाणीमां आवे छे. अरिहंत भगवंतो दिव्यध्वनि द्वारा कहे छे के...