
ज्ञानानंद मूर्ति छे तेना भान विना कदी धर्म थयो नहि. आत्मा ज्ञानानंद मूर्ति छे अने एनी श्रद्धा–ज्ञान ए ज
मोक्षमार्गना साधक छे; व्रत, तप वगेरे सर्वे शुभभावनी क्रियाओ ते मोक्षमार्गमां बाधक छे; पण आत्मानी
साची श्रद्धा–ज्ञान अने स्थिरता ते ज साधक छे. आ प्रमाणे जे जीव नथी समजतो ते आत्माने जाणतो नथी
अने ते मिथ्यात्वना महा पापने सेवे छे.
आत्मानो स्वभाव नथी, परंतु पर लक्षे थतो विरूद्ध भाव छे. ते विकार कदी बे समयनो भेगो थतो नथी अने
त्रिकाळी निर्विकार स्वभाव कदी विकाररूप थतो नथी. छद्मस्थना ज्ञानना उपयोगमां ते विकार असंख्य समये
आवे छे केमके छद्मस्थनुं ज्ञान स्थूळ होवाथी ते एक समयना परिणमनने पकडी शकतुं नथी, छतां विकार तो
एक समय पूरतो ज छे. एक समयनो विकार व्यय थाय त्यारे बीजा समयनो विकार उत्पन्न थाय छे, पण बे
समयनो विकार एक साथे आत्मद्रव्यने विषे होई शके नहि. आ रीते विकार एक ज समयनो होवाथी संसार
एक ज समयनो छे, केमके विकार ए ज संसार छे.
छे. शास्त्रोमां निमित्तनी मुख्यता बताववा एम लख्युं होय के “मोहनीय कर्मने लईने आत्माने मिथ्यात्व थाय’
पण खरेखर तेम नथी. मोहकर्म ते तो जड–अचेतन छे, ते आत्मानी अवस्थामां कांई करी शके नहि. ज्यारे
आत्मा पोते अवस्थामां भूल करे त्यारे कर्म निमित्तरूप कहेवाय छे, परंतु ते बंने जुदां छे, भूल ते आत्मानी
अवस्था छे अने कर्म ते जडनी अवस्था छे. आत्मामां जड कर्म नथी अने जड कर्म आत्मामां नथी, तेथी कोई
कोईनुं कांई करता नथी. बंने पोतपोतानी अवस्थामां अस्तिरूपे अने परनी अवस्थामां नास्तिरूपे वर्ते छे.
धर्मीपणुं तो मिथ्यात्व टळतां ज थाय छे, ते वगर थतुं नथी.
नथी. जड परमाणुओमां चेतनपणुं नथी, तेने तो पोते शुं छे तेनी कांई ज खबर नथी. पुद्गल द्रव्य तो चेतन
रहित छे. पुण्य–पापना भाव ते चेतननो विकार छे जडमां पुण्य–पापना भाव नथी. कर्मो पण जड छे ते कर्मो
आत्माने विकार करावतां नथी. शास्त्रमां एम कथन आवे के ‘ज्ञानावरणीय कर्मे ज्ञानने रोकयुं, मोह कर्मे राग–
कर्मो चेतनने कांई करावता नथी. ज्यारे आत्मा पोते पोतानी अवस्थामां ऊंधा भाव करीने अज्ञानरूपे परिणमे
त्यारे कर्मनी हाजरी छे तेथी ते निमित्तनुं कथन छे, परंतु निमित्ते उपादानमां कांई कार्य कर्युं नथी. खरेखर एटले
साची रीते आत्मानी अवस्थामां कर्म कांई ज करतां नथी. अज्ञानी जीव पोताना ऊंधा पुरुषार्थथी विकार
पोतानी दशामां करे छे, त्यां पोतानो वांक छे परंतु अज्ञानी जीव पोता तरफ न