: १० : भगवान श्री महावीर निर्वाण महोत्सव अंक कारतक : २४७२
महाविदेहवासी श्री सीमंधरप्रभु पासेथी आचार्यदेवश्री
कुंदकुंदाचार्य ज्ञानामृतनां सरोवर भरी लाव्यां छे
परम पूज्य सद्गुरुदेवश्रीने जिज्ञासुओए पूछेला प्रश्नोना जवाब तथा रात्रिर्चा अने
प्रभातर्चा वखते प्रकाशेला न्यायो पान १० थी १७ सुधीमां आपवामां आवेला छे. मुमुक्षु भाई –
बहेनोने आ अपूर्व न्यायोनो मनपूर्वक स्वाध्याय करवा खास भलामण छे. : : : संपादक
एक समये एक ज उपयोग
साधकदशामां ज्ञानना उपयोगमां बे प्रकार छे–१. ज्ञानधारा २. कर्मधारा. ज्ञानधारा = स्व तरफनो
उपयोग. कर्मधारा = पर तरफनो उपयोग. सातमा गुण स्थाने प्रधानपणे तो स्व तरफनो उपयोग
[ज्ञानधारा] होय छे, छतां गौणपणे कर्मधारा पण वर्ते छे, केमके केवळज्ञान नथी एटले हजी संपूर्णपणे स्व
तरफनो उपयोग नथी. जो उपयोग संपूर्णपणे स्वमां ठरी जाय तो केवळज्ञान होय. पण सातमे केवळज्ञान नथी
एटले अधूराश छे अने अधूराश छे त्यां कर्मधारा सूक्ष्मपणे छे.
प्रश्न:–एक स्व तरफनो उपयोग अने बीजो पर तरफनो उपयोग एम बे उपयोग एक साथे होई शके?
उत्तर:– उपयोग एक समये एक ज छे. परंतु ते उपयोग मिश्ररूप छे, एटले स्व तरफनो उपयोग हजी
पूर्ण नथी तेथी अमुक पर तरफ पण छे परंतु सातमा वगेरे गुणस्थाने मुख्यपणे स्व तरफनो ज उपयोग छे. पर
तरफनो उपयोग तद्न गौणपणे छे, तेथी स्व तरफना उपयोगनी मुख्यताथी त्यां स्व तरफनो ज उपयोग
कहेवाय छे. खरी रीते साधकदशामां मिश्ररूप उपयोग होय छे. मिश्ररूप उपयोग कां तो केवळीने न होय अने कां
तो अज्ञानीने न होय.
केवळीने संपूर्णपणे स्व तरफनो उपयोग होय अने अज्ञानीने एकलो पर तरफनो उपयोग होय, पण
साधकने तो मिश्ररूप उपयोग होय छे.
११–१२ मा गुणस्थाने उपयोगमां जो के कषायनो विकल्प नथी छतां त्यां भावमननो सद्भाव छे ते
पूरतो द्रव्यमन साथे संबंध छे. बारमा गुणस्थाने पण, कषायनो अभाव होवा छतां क्षयोपशम ज्ञान वर्ते छे
अने क्षयोपशम ज्ञानमां मननुं निमित्त अबुद्धिपूर्वक छे. तेथी त्यां पण मिश्ररूप उपयोग छे.
पुरुषार्थनी स्वाधीनता
वर्तमान ऊंधा पुरुषार्थथी जीव क्रोध करे त्यारे तेमां निमित्तरूप क्रोध प्रकृति ज होय अने वर्तमान
क्रोधभावनुं निमित्त पामीने जे प्रकृति बंधाय ते पण क्रोध प्रकृति ज होय. क्रोधभावमां मानादि प्रकृतिने निमित्त
न कहेवाय तेम ज क्रोधभावना निमित्तथी मानप्रकृतिनुं बंधन न थाय. वर्तमान जे जातनो विकारभाव होय ते
ज जातना बंधाय. एटले मूळ प्रकृतिनी जातमां फेर न पडे, पण तेना रसमां तो अवश्य फेर पडे. जेटला रसथी
उदय होय तेटला ने तेटला ज रसनुं नवुं बंधन पडे एवो नियम नथी पण ओछा के वधारे रसनुं बंधन थाय.
आथी ए सिद्ध थाय छे के उदय प्रमाणे जीवने विकार थतो नथी पण पोताना पुरुषार्थ प्रमाणे थाय छे.
जेटलो कर्मनो उदय होय तेटलुं ज जोडाण थाय एम कदी बने नहि. मतिज्ञान तथा श्रुतज्ञानावरणीय
कर्मना सर्वघाति स्पर्द्धकोनो छद्मस्थ जीवने निरंतर उदय होय छे, परंतु जीव तेमां सर्वथा कदी जोडातो नथी. जो
ते सर्वघाति स्पर्द्धकोना उदयमां सर्वथा जोडाय तो जीवनुं सर्वज्ञान हणाय जाय अने अचेतनपणानो प्रसंग
आवे; परंतु जीवनो वीर्यगुण दरेक समये अमुक पुरुषार्थ तो टकावी ज राखे छे तेथी उदयमां सर्वथा जोडाण थतुं
नथी अने जीवनुं मति–श्रुतज्ञान नित्य अमुक तो खुल्लुं होय ज छे. जो उदय प्रमाणे पूरेपुरुं जोडाण थाय तो
वीर्यगुण जड थई जाय, परंतु तेम कदी बनतुं नथी. जीवना पुरुषार्थ उपर कर्मनी सत्ता चालती नथी.
निमित्त–नैमित्तिकसंबंध
प्रश्न:–जीव क्रोध करे त्यारे उदयमां आवेली प्रकृति ज क्रोधनी छे के क्रोधभाव थयो माटे उदयमां आवेली
प्रकृतिने क्रोध–प्रकृतिनो आरोप आपवामां आवे छे?
उत्तर:–जीव ज्यारे क्रोधभाव करे त्यारे सामे निमित्तरूपे प्रकृति क्रोधनी ज होय छे. क्रोध, मान, माया,
लोभ ए चारे प्रकृतिओनो उदय तो एक साथे वर्ते छे. क्रोध प्रकृति साथे ते वखते मान वगेरे प्रकृतिओनो