Atmadharma magazine - Ank 025
(Year 3 - Vir Nirvana Samvat 2472, A.D. 1946)
(Devanagari transliteration).

< Previous Page   Next Page >


PDF/HTML Page 12 of 45

background image
कारतक : २४७२ भगवान श्री महावीर निर्वाण महोत्सव अंक : ११ :
उदय पण छे ज. हवे ते बधी प्रकृतिओमांथी कई प्रकृतिने निमित्त कहेवुं ए तो जीवभावने अनुसरीने आरोप
करवामां आवे छे. ज्यारे जीव मुख्यपणे क्रोध करे त्यारे ते उदय प्रकृतिओमांथी जे क्रोध प्रकृति छे तेने ज
निमित्तपणानो आरोप आवे छे. मान करे तो मान प्रकृतिने ज निमित्त कहेवाय छे. जेवुं निमित्त होय तेवो
कषाय थाय एम नथी पण जेवो कषाय करे तेवुं सामे निमित्त कहेवाय छे. सामे उदयरूप प्रकृति तो अनेक जुदी
जुदी जातनी एक साथे छे, पण आत्मा पोताना पुरुषार्थ वडे जे भाव करे ते भावने अनुकूळ प्रकृतिने ज
निमित्त गणवामां आवे छे. “निमित्त अनुकूळ ज होय” अने “उपादानमां निमित्त कांई ज करे नहि” ए महा
सिद्धांत छे.
जीव क्रोध करे त्यारे सामे क्रोध प्रकृतिनो ज उदय होय छे. अन्य प्रकृतिमां क्रोधनो आरोप आपवामां
आवतो नथी, पण जे क्रोध प्रकृति छे तेने ज निमित्तपणानो आरोप आवे छे; केमके क्रोधभावनुं अनुकूळ निमित्त
क्रोध प्रकृति ज छे. छतां ते प्रकृतिए क्रोधभाव कराव्यो नथी.
प्रश्न:–जीवने ज्यारे ज्ञाननुं परिणमन ओछुं होय त्यारे ज्ञानने रोकवामां ज्ञानावरण कर्मने ज निमित्त
शा माटे कह्युं? ते वखते तो आठे जातनां कर्मो हाजर छे छतां बीजा कोईने निमित्त न कहेतां ज्ञानावरणने ज
शा माटे निमित्त कह्युं?
उत्तर:–सिद्धांत छे के निमित्त अनुकूळ ज होय. ज्ञानमां रोकाणो त्यारे सामे तो ज्ञानावरण साथे
दर्शनावरणादि कर्मो पण उदयरूप तो छे पण वर्तमानमां जीव मुख्यपणे ज्ञानमां रोकाणो छे तेथी तेने ज्ञानावरण
कर्म ज निमित्त कहेवाय छे; तथा जो जीव ते ज वखते स्व लक्षमां टकयो होत तो ते ज कर्मना परमाणुओने
निर्जरानुं निमित्त कहेवात. निमित्तपणानो आरोप तो जीवना भावने अनुसरीने आपवामां आवे छे. निमित्त
अने उपादान ए बंने स्वतंत्र द्रव्यो छे, एक बीजानुं कांई ज करता नथी आवुं यथार्थ ज्ञान थया पछी
एकबीजाना निमित्त–नैमित्तिक संबंधनुं ज्ञान करे तो ते यथार्थ छे. पण जो निमित्त–उपादान एक बीजामां कांई
करी दीए एम माने तो तेणे बे द्रव्योने स्वतंत्र जाण्या नथी अने तेना निमित्त–नैमित्तिक संबंधने ज कर्ताकर्म
संबंध मानी लीधो छे–ते ज्ञान खोटुं छे.
क्रमबद्धपर्यायना ज्ञाननुं फळ स्व लक्ष
दरेक वस्तुनी अवस्था क्रमबद्ध थाय छे. जीव अने परमाणुनी क्रमबद्ध अवस्था ज थाय छे, पण तेनो अर्थ
एवो नथी के “परमाणुमां कर्मनी टळवारूप अवस्था थवानी होय तो आत्मा टाळवानो पुरुषार्थ करे.” आम पर
तरफ क्रमबद्ध श्रद्धानुं जोर जवुं न जोईए. परंतु “जो आत्मा पुरुषार्थ करे तो परमाणुमां कर्मनी टळवारूप
अवस्था ज होय.” एम स्व तरफ जोवानुं छे. “क्रमबद्ध पर्याय” कहेतां ज अनेक पर्यायो ख्यालमां आवे छे, केमके
एकमां क्रम न होय, पण अनेकमां क्रम होय. ते क्रमबद्ध त्रणेकाळनी पर्यायोथी भरेला द्रव्य तरफ द्रष्टि करवी ते
क्रमबद्धनी श्रद्धानुं प्रयोजन छे. पोताना अखंड स्वभाव तरफ द्रष्टि जतां पर तरफ जोवानुं न रह्युं–एटले पर्याय
निर्मळ ज प्रगटवानी. क्रमबद्ध पर्यायनी श्रद्धानुं जोर पोताना अखंड स्वभाव तरफनी एकाग्रतामां जवुं जोईए.
अखंड परिपूर्ण स्वभाव छे तेनी श्रद्धा ए ज अनंत पुरुषार्थ छे. अखंड द्रव्य तरफनो ज पुरुषार्थ करवानो छे.
क्रमबद्ध पर्यायनुं वर्णन करतां, क्रमवर्ती पर्यायनुं लक्ष छोडावीने सर्व पर्यायोमां सळंगपणे जे अखंड त्रिकाळी द्रव्य
छे तेनी अखंडतानुं लक्ष कराव्युं छे–अर्थात् परलक्ष छोडावीने स्वलक्ष कराव्युं छे.
दर्शन, दीक्षा ने मुनिपणुं
समकित पछी उदासीन भावपूर्वक दीक्षा लईने मुनि थवानो विकल्प [केवळज्ञाननो ज विकल्प होय, पण
आ काळे केवळज्ञान नथी तेथी मुनिपणानो विकल्प आवे एम कह्युं छे.] सहज आवे छे; दीक्षा लेतां जो के
विकल्पथी मुनिपणानी भावना छे तो पण मुनिपणुं प्रगटशे के नहि एवी शंका छे ज नहि. आ ज क्षणे स्वरूपमां
ठरी जईने केवळज्ञान लउं एवी भावना छे पण ते भावना (विकल्प) निर्विकल्पदशानुं–मुनिपणानुं खरेखर
कारण नथी. निर्विकल्पदशा तो अंदरनी एकाग्रताना जोरे प्रगटे छे. ते निर्विकल्पता प्रगटी त्यारे पूर्वना
विकल्पने