Atmadharma magazine - Ank 025
(Year 3 - Vir Nirvana Samvat 2472, A.D. 1946)
(Devanagari transliteration).

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: १२ : भगवान श्री महावीर निर्वाण महोत्सव अंक कारतक : २४७२
ते ज्ञानामृतनुं अपूर्वपान परम पूज्य सद्गुरुदेवश्री
सुवर्णपुरीनां स्वाध्याय मंदिरमां अहर्निश करावे छे.
निमित्त कहेवाय छे. सम्यक्दर्शन पछी मुनिपणानो विकल्प उठे छे ते विकल्प पण द्रव्यलींग कहेवाय छे;
सम्यग्द्रष्टि जीव प्रथम विकल्प उठतां दीक्षा ल्ये छे अने दीक्षा पछी तेने भावलींग प्रगटे छे. पण दर्शन वगर तो
दीक्षा केवी अने भावलींग केवुं?....
....एटले दीक्षा माटे एम नक्की थयुं के पहेलांं दर्शनशुद्धि तो बधाने जोईए ज, पछी मुनिपणानो विकल्प
आवे अने दीक्षा ल्ये–त्यारपछी भावलींग–मुनिपणुं प्रगटे, तथा कोईने पहेलांं सातमुं आवी जाय पछी छठ्ठुं
आवे अने दीक्षा ल्ये–एम पण बने छे. तेथी भावलींग प्रगट्या पछी ज द्रव्यलींग अंगीकार करे एम नथी.
दीक्षा अने मुनिपणुं ए बन्ने जुदी ज चीज छे. मुनिपणुं सातमुं प्रगट्या पछी ज होय अने दीक्षा चोथे–पांचमे–
छठ्ठे होय. दीक्षा एटले सम्यग्दर्शन पछी मुनिपणानी भावना थतां आचार्य वगेरे पासे निर्ग्रंथ दीगंबरपणुं–
अंगीकार करे. आ रीते भावलींग पछी ज द्रव्यलींग होय ए नियम रहेतो नथी. वस्त्रसहित होय त्यां तो
द्रव्यलींग के भावलींग एके न कहेवाय.
प्रश्न:–आचार्यदेव मुनिपणानी दीक्षा जेने आपे छे ते सामामां मुनिपणुं प्रगटशे एम जाणीने आपे छे?
उत्तर:–कोई वखत व्यक्तिगत ख्याल आवे, पण बधानुं जाणे ज–एम नथी, केमके आचार्य पण हजी
छद्मस्थ छे; तेथी कोईवार मिथ्याद्रष्टि दीक्षा लेवा आवे तेने पण दीक्षा आपे, अरे! अभवी जीव होय अने
वैराग्यथी उदासीन परिणाम थाय अने दीक्षा लेवा आवे तो तेने पण कोईवार वर्तमान उदासीन परिणाम
जोईने दीक्षा आपी दे; परंतु दीक्षा लीधी तेथी कांई तेने मुनिपणुं आवतुं नथी.
मिथ्याद्रष्टि जीव वैराग्यथी मंद कषाय करीने निर्ग्रंथ लींग धारण करे छे तेने उपचारथी द्रव्यलींग छे अने
दीक्षा पण व्यवहारे छे, खरेखर तेने दीक्षा नथी. दीक्षा तो सम्यग्दर्शन पछी ज होय.
द्रष्टि अने ज्ञाननी समजण
प्रश्न:–ऊंधी द्रष्टिवाळाने ज्योतिष वगेरेनुं ज्ञान साचुं होई शके?
उत्तर:–द्रष्टि खोटी होय तेथी तेनुं पर तरफनुं अप्रयोजनभूत ज्ञान पण खोटुं ज होय एम नियम नथी.
हा! जेनी स्व तरफनी भूल होय तेनी प्रयोजनभूत तत्त्वोमां पण भूल होय ज. पण ऊंधी द्रष्टि होय त्यां पर
तरफना ज्ञानमां भूल होय ज एम नथी. पैसा मारां, शरीर मारूं एम ऊंधी मान्यता होवा छतां तेनुं ज्ञान
शरीरने पैसापणे के पैसाने शरीरपणे जाणतुं नथी एटले पर तरफनुं ज्ञान साचुं होय के खोटुं ते साथे द्रष्टिनो
संबंध नथी. जो द्रष्टि खोटी होवाथी परनुं ज्ञान खोटुं थई जतुं होय तो १५×१२ ए वगेरे गुणाकार पण तेनो
खोटो ज आवे–अने तो तो मिथ्याद्रष्टि कांई संसारीक पण भणी ज न शके अने लौकिक व्यवहार पण न चलावी
शके; पण द्रष्टि खोटी होवा छतां ज्योतिष, गणित वगेरे संबंधीनुं ज्ञान, के जे आत्मकल्याणने माटे
अप्रयोजनभूत छे ते, साचुं पण होय, परंतु प्रयोजनभूतमां तो भूल होय ज.
ज्ञानस्वभावनी स्वाधीनता
प्रश्न:–ज्यारे पोते कांई बोलतो होय त्यारे तो ते वाणीना भावनो पोताने ते ज वखते अर्थावग्रह होय
पण ज्यारे बीजो बोलतो होय त्यारे ते वाणी सांभळीने पछी अर्थावग्रह शरू थाय छे तेनुं शुं कारण?
उत्तर:–एमां अंतर पडतुं ज नथी. जे समये सामाए बोलवानी शरूआत करी ते ज समये तेना
आशयने समजवारूप ज्ञाननुं परिणमन शरू थई गयुं छे. सामो जे आखो आशय कहेवा मागे छे ते आशय तो
पछी समजशे, पण ते आखा आशयने समजवाना कारणरूप ज्ञाननो व्यंजनाग्रह तो शरू थई ज गयो छे.
सामाना शब्दो सांभळ्‌या तेथी अहीं व्यंजनावग्रह शरू थयो–एम नथी. सामो जे आशय कहेवा मागे छे तेना
शब्दो शुं छे ते लक्षमां आव्या पहेलांं ज ते आशय समजवाना कारणरूप आत्माना ज्ञाननो व्यंजनावग्रह शरू
थई गयो छे. सामा शब्दोना अवलंबने व्यंजनावग्रह नथी पण ज्ञान जे लब्धरूप पड्युं हतुं ते ज पोताथी
उपयोगरूप थवा मांड्युं छे तेथी व्यंजनावग्रहनी शरूआत स्वथी ज थई छे, वाणीने कारणे थई नथी.