Atmadharma magazine - Ank 025
(Year 3 - Vir Nirvana Samvat 2472, A.D. 1946)
(Devanagari transliteration).

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: १४ : भगवान श्री महावीर निर्वाण महोत्सव अंक कारतक : २४७२
खरी रीते ज्ञाननी क्षणेक्षणे हीनता ज थती जाय छे. अने जे ज्ञानी जीवने तत्त्वनो आराधकभाव छे ते जीवने
वर्तमान पर्यायमां ज ज्ञाननुं परिणमन वधतुं ज जाय छे; आराधक जीवने ज्ञाननो उघाड पर्याये पर्याये वधतो
जाय छे परंतु स्थूळ द्रष्टिथी–
[समय समयनुं सूक्ष्म परिणमन लक्षमां नहि आवतुं होवाथी] ते जणातुं नथी.
ज्ञानीने क्षणेक्षणे अंतरमां आत्मशांतिनुं जे वेदन वधतुं जाय छे तेनो तो वर्तमान पोताने अनुभव छे, परंतु
ज्ञाननो उघाड वधतो जाय छे ते परिणमन स्थूळ द्रष्टिए जणातुं नथी. कोई ज्ञानीने पूर्वनो ज्ञाननो उघाड
ओछो होय तेथी वर्तमान जाणपणुं
[पर संबंधी ज्ञान] ओछुं देखाय छतां अंदर तो आराधक भाव होवाथी
ज्ञाननो उघाड वृद्धि ज पामतो जाय छे. आराधक भाव छे तेथी स्वभाव तरफनुं परिणमन वृद्धि ज पामे छे ते
क्रमेक्रमे वधतां वधतां केवळज्ञान प्रगट थशे.
[अहीं मुख्यपणे ज्ञानगुणथी वात करी छे, ते प्रमाणे दर्शन, सुख
वगेरे बधा गुणोमां पण समजवुं. आराधकने बधा गुणोनुं परिणमन वृद्धि पामीने पूर्णता थाय छे, विराधकने
बधा गुणोनुं परिणमन हीन थतुं जाय छे.
] आ रीते जे जातनो भाव होय ते जातनुं परिणमन वर्तमान
अवस्थामां ज थवा मांडे छे. वळी ज्ञानना उघाड साथे धर्मनो संबंध नथी, परंतु ज्ञाननुं वलण कई तरफ छे–ते
साथे धर्मनो संबंध छे. ज्ञाननो उघाड ओछो होय छतां जो ते ज्ञानमां आराधकभाव होय तो एकावतारी थई
शके छे, अने ज्ञाननो घणो उघाड होय छतां जो तेमां विराधकभाव होय तो विराधकभावने कारणे नरक–
निगोदमां जईने अनंत संसारमां रखडवानो...आ रीते आराधकभाव साथे ज धर्मनो संबंध छे.
वर्तमान मंद कषायना पुरुषार्थथी पण ज्ञाननो उघाड थाय छे. निगोदथी नीकळीने मनुष्य थयेलो जे जीव
अगीआर अंगनुं ज्ञान करे छे ते जीवने अगीआर अंगनो उघाड पूर्वनो नथी, परंतु वर्तमान कषायनी मंदता
करीने ज्ञान करे छे. अगीआर अंगनुं ज्ञान थाय तेवो उघाड थाय एटली बधी कषायनी मंदता निगोदना जीवने
होती नथी. परंतु मनुष्यपणामां कषायनी मंदता करी ज्ञान प्रगट करे छे. आ रीते वर्तमान पुरुषार्थथी उघाड
थई शके छे. छतां मिथ्याद्रष्टि जीवनो ज्ञाननो उघाड आत्मानुं कांई कार्य करी शकतो नहि होवाथी परमार्थमां
तेना पुरुषार्थने खरेखर पुरुषार्थ गणवामां आव्यो नथी. केमके तेना ज्ञानमां आराधकभाव नथी तेथी तेनुं ज्ञान
आत्मानुं कांई प्रयोजन साधतुं नथी. जो के तेणे मंद कषायना पुरुषार्थथी ज्ञाननो उघाड कर्यो छे परंतु आराधक
भावना अभावमां तेनो पुरुषार्थ आत्मा साथे अभेदपणुं धरावतो नथी तेथी तेना पुरुषार्थने परमार्थे पुरुषार्थ
कह्यो नथी....जो ते ज्ञानने पुरुषार्थवडे स्वभाव तरफ वाळे तो ते ज्ञाननुं स्वभाव साथे अभेदपणुं थाय, अर्थात्
तेने आराधकभाव थाय. आ रीते आराधकभाव सहितनो ज्ञानीनो पुरुषार्थ आत्मा साथे अभेदपणुं धरावे छे
अने तेने जे ज्ञाननो उघाड छे ते बधो वर्तमान पुरुषार्थमां ज भळी जाय छे. आथी आराधकभाव सहितनो
ज्ञाननो अंश आत्माना स्वभाव साथे अभेद होवाथी ते वधीने पूर्ण थई जवानो, अने आराधकभाव वगरनुं
जे ज्ञान छे तेनुं अभेदपणुं आत्मा साथे नहि होवाथी ते घटी जईने विराधकपणाने लीधे एकेन्द्रियादि पर्यायमां
अत्यंत हीन थई जशे... आमां आराधकभावथी ज ज्ञानादिनी सफळता छे एम नक्की थयुं. आराधकभाव एटले
सम्यग्दर्शन. सम्यग्दर्शन वगर कोईने आराधकभाव होई शके नहि. आत्माना स्वभावनी यथार्थ श्रद्धा ते
सम्यग्दर्शन छे अने ते सम्यग्दर्शन थतां ज आराधकपणुं थाय छे, अने अल्पकाळमां ते संपूर्ण आराधना करीने
पूर्ण पवित्र मोक्षदशाने जरूर पामे छे. माटे साची समजणद्वारा जीवोए पहेलांं सम्यग्दर्शन प्राप्त करवुं जोईए.
आत्माने संयोगनुं दुःख नथी
एक जीव होय, तेनुं शरीरनुं कोई अंग कपाईने दूर पडे त्यां आत्माना प्रदेशो पण लंबाईने ते छूटा
पडेला अंग सुधी अमुक वखत सुधी पहोळा थाय छे अने शरीर तथा ते छूटा पडेला अंग वच्चेना खाली
भागमां पण आत्माना प्रदेशो केटलोक वखत फेलाईने रहे छे. हवे जे जग्याए आत्म प्रदेशो फेलायेला छे ते
जग्याए कोई प्रहार करे, छेद मूके, बाळे छतां आत्माने ते संबंधी दुःख थतुं नथी. आत्मप्रदेशो जे जगाए छे ते
ज जगाए प्रतिकूळ संयोगो होवा छतां तेनुं वेदन थतुं नथी केमके संयोगनुं वेदन आत्माने नथी, परंतु पोताना
भावनुं वेदन छे, तेथी ते वखते आत्मामां जेटलो कषायभाव होय तेटलुं वेदन ते आत्माने छे अने तेना
प्रमाणमां दुःख छे; अथवा जो वीतरागभाव होय तो तेनुं सुखरूप वेदन छे. आ रीते पोताना भाव प्रमाणे
सुखदुःखनुं वेदन आत्मा करे छे परंतु संयोगनुं वेदन